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________________ तत्त्वार्थविषयक मूल साहित्य : २४७ वाक्य पाये जाते हैं उनमें 'तत्त्वार्थाधिकगम' नामकी तरह तत्त्वार्थसूत्र नाम भी पाया जाता है-यथा 'श्री तत्त्वार्थसूत्रे भाष्यसंयुक्ते भाष्यानुसारिण्या तत्त्वार्थटीकायां षष्ठो अध्यापः समाप्तः । तथा सम्बन्धकारिकाओंके आद्य टीकाकार देव गुप्त सूरिने अपनी टीकाके आद्यश्लोकमें केवल 'तत्त्वार्थ' नामसे ही उसका निर्देश किया है। मलय गिरि सूरिने अपनी जीवाभिगम सूत्रकी टीका ( ६-९ ) में भी उसका उल्लेख तत्त्वार्थसूत्रके नामसे किया है। अतः 'तत्त्वार्थाधिगम'की अपेक्षा 'तत्त्वार्थ' नामसे ही इस ग्रन्थका प्रचलन रहा है। उसमें मोक्षका कथन होनेसे उसे मोक्षशास्त्र भी कहते हैं। महत्त्व--इस सूत्र ग्रन्थमें जिनागमके मूल तत्त्वोंको बहुत ही संक्षेपमें इस सुन्दर ढंगसे निबद्ध किया है कि 'गागरमें सागर' की कहावतको चरितार्थ कर दिया है और कुछ सौ सूत्रोंमें करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोगका सार खींचकर रख दिया है । तथा उसकी रचनागें साम्प्रदायिकताका समावेश न होनेसे सभी जैन सम्प्रदायोंमें वह प्रिय और मान्य रहा है। उसकी इन विशेषताओंके कारण पूज्यपाद स्वामीने उसपर सर्वार्थसिद्धि नामकी, अकलंकदेवने तत्त्वार्थवार्तिक नामकी और विद्यानन्दिने तत्वार्थश्लोक वार्तिक नामकी महत्त्वपूर्ण दार्शनिक टीकाएँ रचकर तो उसके महत्त्वमें चार चान्द लगा दिये हैं । अकलंकदेवने, जिन्हें जैन न्यायका पिता कहा जा सकता है, अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंमें जो प्रमाण और नयोंका विवेचन किया है उसका मूल स्रोत तत्त्वार्थसूत्रका प्रथम अध्याय है । इसीसे श्रीविद्यानन्दिने अपनी आप्तपरीक्षाके अन्तमें 'श्रीमत्तत्वार्थशास्त्राद्भुतसलिलनिधे रिद्धरत्नोद्भवस्य' लिखकर तत्त्वार्थशास्त्रको बहुमूल्य रत्नोंको उत्पन्न करनेवाला अद्भुत समुद्र कहा है। जितनी टीकाएँ इस ग्रन्थपर रची गई हैं उतनी अन्य किसी ग्रन्थपर नहीं रची गई। यह उसकी महत्ता और लोकप्रियताका सूचक है। फिर भी यह कहना पड़ेगा कि दिगम्बर परम्परामें तत्त्वार्थसूत्रको जो महत्त्व मिला वह महत्त्व उसे श्वेताम्बर परम्परामें नहीं मिल सका । न तो श्वेताम्बर परम्परामें उसपर उतनी महत्त्वपूर्ण टीकाएं ही रची गई और न जनतामें ही वह उतना लोकप्रिय हो सका। इसका एक कारण श्वेताम्बर परम्परामें आगम ग्रन्थोंकी उपस्थितिका होना भी है। उसकी दृष्टिमें आगमग्रन्थोंका जो महत्त्व हो सकता है वह तत्त्वार्थ सूत्रका नहीं हो सकता। उधर दिगम्बर परम्परामें तो तत्त्वार्थसूत्रका पाठ करनेसे एक उपवासका फल लगनेकी प्रसिद्धिने जनसाधारणमें भी उसे लोक प्रिय बना डाला १. 'वीरं प्रणम्य सर्वशं तत्वार्थस्य विधीयते ।'
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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