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________________ २४६ : जेनसाहित्यका इतिहास उत्तर प्रत्युत्तर होता है वह प्रायः सब वही है जो सर्वार्थ सिद्धि में प्रथम सूत्र की उत्थानिकामें पाया जाता है । किन्तु पूज्यपादने 'कश्चिद् भव्यः' लिखा है, उसका कोई नाम नहीं दिया। हाँ सर्वार्थ सिद्धिके पदोंके व्याख्याकार प्रभाचन्द्रने, जो न्याय कुमुदचन्द्र आदिके रचयिता प्रसिद्ध प्रभाचन्द्र ही ज्ञात होते हैं, उस भव्यका नाम अपनी वृत्तिमें दिया, किन्तु अन्य सब कथाका उसमें भी कोई उल्लेख नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र नाम-यह पहले लिख आये हैं कि श्रवणवेलगोला और नगर ताल्लुके शिला लेखोंमें प्रकृत गन्थका नाम तत्त्वार्थ' सूत्र मिलता है । तथा वीरसेन स्वामीने अपनी धवला' टीकामें भी तत्त्वार्थ सूत्र नामसे ही उसका उल्लेख किया है। किंतु उसके प्रसिद्ध टीकाकार श्री पूज्यपाद स्वामीने अपनी सर्वार्थसिद्धिको तत्त्वार्थ वृत्ति कहा है, अकलंकदेवने अपने वार्तिक ग्रन्थको तत्त्वार्थवातिक नाम दिया है, और विद्यानन्दिने अपनी अमर कृतिको "तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक संज्ञा दी है । जिससे प्रमाणित होता है कि सूत्र ग्रन्थका नाम तत्त्वार्थ है । तत्त्वार्थसूत्रकी अनेक प्रतियोंके अन्तमें जो उसके माहात्म्यसूचक श्लोक मिलता है, उसमें भी उसका उल्लेख केवल 'तत्त्वार्थ नामसे ही पाया जाता है। और शास्त्रात्मक होनेसे उसे तत्त्वार्थशास्त्र भी कहा है। किन्तु त्र शैलीमें निबद्ध होनेके कारण तत्त्वार्थसूत्र नामसे ही उसकी अति प्रसिद्धि है। किन्तु सभाष्य तत्त्वार्थसूत्रके आदिमें जो उत्थान कारिकाएँ पाई जाती हैं उनमेंसे कारिका २२ में तथा अन्तिम प्रशस्तिके श्लोक ५-६ में उसका नाम 'तत्त्वार्थाधिगम' बतलाया है । किन्तु सिद्धसेन गणिने अपनी वृत्तिको तत्त्वार्थवृत्ति नाम ही दिया है तथा उसकी मुद्रित प्रति में प्रत्येक अध्यायके अन्तमें जो पुष्पिका १. जै० शि० सं०, भा० १, ले० नं० १०५ । २. षट् खं०, पु० १, पृ० २३९, २५९ । ३. 'सर्वार्थसिद्धिरिति सद्भिरुपान्तनामा तत्त्वार्थवृत्तिरनिशं मनसा प्रधार्या । -सर्वा० सि० प्रश० । ४. 'वक्ष्ये तत्त्वार्थवार्तिकम्-त. वा० पृ० १। ५. त० श्लो० वा० का आद्य श्लोक । ६. 'दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्त्वार्थे पठिते सति ।' 'तत्त्वार्थशास्त्र कर्तारमुमास्वामि मुनीश्वरम् ।' ७. 'श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्भुत सलिलनिघे'--आ० ५०, प्रश० ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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