SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थविषयक मूल साहित्य : २४५ एक प्रभाचन्द्र नामके आचार्यका 'तत्त्वार्थ वृत्ति पद' नामका ग्रन्थ मूड़विद्रीके भण्डारमें है। उसकी एक प्रति बम्बईके ए०५० सरस्वती भवनमें है। इसमें सर्वार्थसिद्धिके अव्यक्त पदोंको ध्यक्त किया गया है। इसमें सर्वार्थसिद्धिकी उत्थानिकाके पदोंका अर्थ करते हुए निर्ग्रन्थाचार्यके पास जानेवाले उस भव्यका नाम 'प्रसिध्येक 'नामा' लिखा है। किन्तु १३वीं शताब्दीमें बालचन्द्र मुनि द्वारा तत्त्वार्थ सूत्रकी जो कनड़ी टीका लिखी गई है उसमें उस प्रश्न कर्ता भव्यका नाम 'सिद्धय्य' दिया है। बहुत सम्भव है कि प्रभाचन्द्रकी वृत्तिकी मूल प्रतिमें भी सिद्धय्य नाम ही हो और लेखकके दोषसे बम्बईवाली प्रतिमें गलत नाम लिखा गया हो। बालचन्द्रकी कनड़ी वृत्तिकी प्रस्तावनामें तत्त्वार्थ सूत्रकी उत्पत्ति जिस प्रकारसे बतलाई है उसका संक्षिप्तसार इस प्रकार हैं-सौराष्ट्र देशके मध्य उर्जयन्त गिरिके निकट गिरिनगर नामके पत्तनमें आसन्न भव्य, स्वहितार्थी, द्विज कुलोत्पन्न, श्वेताम्बर भक्त सिद्धय्या नामका एक विद्वान श्वेताम्बर मतके अनुकूल सकल शास्त्रका जाननेवाला था। उसने 'दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' ऐसा एक सूत्र बनाया और उसे एक पटियेपर लिख दिया। एक दिन चर्याके लिए उमास्वाति नामके मुनि वहाँ आये और उन्होंने आहार लेनेके पश्चात् पाटियेको देखकर उसमें उक्त सूत्रके पहले 'सम्यक' पद जोड़ दिया। जब सिद्धय्य बाहरसे आया और उसने पाटियेपर सम्यक् शब्द जुड़ा देखा तो उसने प्रसन्न होकर अपनी मातासे पूछा कि किस महानुभावने यह शब्द लिखा है। माताने उत्तर दिया कि एक निम्रन्थाचार्यने यह शब्द लिखा है। इस पर वह उन्हें खोजता हुआ उनके आश्रममें पहुंचा और भक्ति भावसे विनय पूर्वक उन मुनिराजसे पूछने लगा कि आत्माका हित क्या है ? मुनिराजने कहा मोक्ष है । इसपर उसने मोक्षका स्वरूप और उसकी प्राप्तिका उपाय पूछा । उसीके उत्तर रूपमें तत्त्वार्थ सूत्र रचा गया । इस तरह एक श्वेताम्बर विद्वानके प्रश्नपर एक दिगम्बराचार्य द्वारा तत्त्वार्थ सूत्रकी उत्पत्ति हुई ऐसा उक्त कथानकसे प्रकट होता है। नहीं कहा जा सकता कि यह कथा कहाँ तक ठीक है। किन्तु यह कथा ७०० वर्षोंसे भी पुरानी है क्योंकि उक्त कनड़ी टीकाके कर्ता बालचन्द्र मुनि विक्रमकी १३वीं शताब्दीके पूर्वार्धमें हो गये हैं। इस कथा का मूल आधार तो सर्वार्थ सिद्धिकी उत्थानिका ही प्रतीत होता है क्योंकि सिद्धग्यके निर्ग्रन्थाचार्यके पास पहुँचनेके बाद उन दोनोंके बीचमें जो १. अब यह ग्रन्थ भा० ज्ञानपीठ से सर्वार्थसिद्धि के साथ प्रकाशित हो चुका है। २. अनेकान्त, वर्ष १, कि० ५, पृ० २७१ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy