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________________ तत्त्वार्थविषयक मूल साहित्य : २४३ अर्थात्-'अम्बुवाताकाश प्रतिष्ठाः' ऐसा सिद्ध होनेपर भी जो 'घन' शब्दका ग्रहण किया गया उससे ऐसा प्रतीत होता है। यहाँ 'प्रतीयते' शब्द निश्चयात्मक नहीं है सन्देहात्मक है। गणिजीने अपनी टीकामें 'प्रतीयते' शब्दको उड़ा ही दिया है और भाष्यका अर्थ करते हुए 'ज्ञाप्यते' शब्दका प्रयोग किया है जो निश्चयात्मक है । यदि भाष्यकार ही सूत्रकार होता तो अपने द्वारा प्रयुक्त 'घन' शब्दके प्रयोगके लिये वह 'प्रतीयते' जैसे अनिश्चयात्मक शब्दका प्रयोग न करके 'जाप्यते' जैसे शब्दका प्रयोग करता । ६. दूसरे अध्यायके अन्तिम सूत्रमें औपपातिक, चरमदेह और उत्तम पुरुषका ग्रहण किया है। तदनुसार भाष्य में भी उनका व्याख्यान करते हुए 'उत्तम पुरुषास्तीर्थकरचक्रवर्त्यर्धचक्रवर्तिनः' लिखा है। किन्तु आगे उनमें सोपक्रम और निरुपक्रमकी चर्चा करते हुए उत्तम पुरुषोंको एक दम ही छोड़ दिया है। इससे जो असंगति पैदा हुई उसका उल्लेख सिद्धसेन' गणिने किया है। उन्होंने लिखा है कि किन्हींका कहना है कि सूत्रकारने सूत्रमें 'उत्तम पुरुष' पदका ग्रहण नहीं किया अतः उत्तम पुरुषका ग्रहण अनार्ष है। और भाष्यमें दोनों ही प्रकार पाये जाते हैं । प्रारम्भमें उत्तम पुरुषका ग्रहण किया है किन्तु आगे निरुपक्रम सोपक्रमके निरूपणमें ग्रहण नहीं किया अतः भाष्य से ही सन्देह होता है कि सूत्रमें उत्तम पुरुष पद है या नहीं।' गणिजी भी इस सन्देहका निराकरण नहीं कर सके । उक्त बातोंके सिवाय सूत्र और भाष्यकी तुलना करनेसे अनेक ऐसी बातें प्रकाशमें आती हैं जो दोनोंकी एककर्तृकतामें संभव प्रतीत नहीं होती। तत्त्वार्थसूत्रके सूत्रोंको देखनेसे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उनका रचयिता विषयको क्रमानुसार व्यवस्थित करके उसे सूत्र निबद्ध करनेमें पटु है । एक भी सूत्रके विषयमें कोई यह नहीं कह सकता कि यह सूत्र यदि यहाँ न होकर अमुक जगह होता तो उत्तम होता। किन्तु भाष्यमें ऐसा सुव्यवस्थितपना नहीं है । कई स्थलोंपर कहींकी बात कहीं कह दी गई है । यथा-दूसरे अध्यायके ३७वें सूत्र में औदारिक आदि पाँच शरीरोंके नाम गिनाये हैं । इसके भाष्यमें केवल पांच शरीरोंके नाम गिनाकर इतना ही लिख १. 'केचिदभिदधते-नास्ति सूत्रकारस्पोत्तमपुरुषग्रहणमिति तत्कथं तीर्थकरादि संग्रह इतिचेत्, एवं च मन्यन्ते...."तस्मादनार्षमुत्तमपुरुषग्रहणमिति । उभयथा च भाष्यमुपलक्ष्यते अविगानात्, आदावुत्तमपुरुषास्तीर्थकरादय इति विवृत्तमुत्तरकालं पुनर्नोपात्तमुत्तमपुरुषग्रहणं निरुपक्रमसोपक्रमनिरूपणायामतो भाष्यादेव सन्देहः किमस्ति नास्तीति संशयात्तमेवेदमस्माकम् ।'-वही, पृ० २२१-२२२ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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