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२४२ : जैनसाहित्यका इतिहास कर्मणि व्याख्यातौ ।' अर्थात् नामकर्मके कथनमें प्राण और अपानका व्याख्यान किया जा चुका। मगर नामकर्मका उक्त कथन आगे आठवें अध्यायमें है । सिद्धसेन गणिने अपनी टीका में इस चर्चाको भी उठाकर उसका समाधान करनेका प्रयत्न किया है।
४. एक उदाहरण ऐसा भी है । जिसमें भाष्यकारने सूत्रके क्रमका उल्लंघन करके व्याख्यान किया है। अध्याय छ के 'इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः' इत्यादि छठे सूत्र में 'इन्द्रिय, कषाय और अवत' को क्रमसे रखा है। किन्तु भाष्यकारने पहले पाँच अव्रतोंका फिर कषायोंका और फिर पाँच इन्द्रियोंका उल्लेख किया है । इस क्रमोल्लंघनका उल्लेख करके सिद्धसेन गणिने उसका समाधान करते हुए लिखा है-भाष्यकारका यह अभिप्राय है कि हिंसा आदि अव्रत सकल आस्रव जालके मूल हैं उनमें प्रवृत्ति होने पर ही आस्रवमें प्रवृत्ति होती है और उनसे निवृत्ति होने पर सब आस्रवोंसे निवृत्ति होती है; इस अर्थका ज्ञापन करनेके लिये भाष्यकारने सूत्रोक्त क्रमका उल्लंघन करके अव्रतोंका कथन किया है। और सूत्र रचनाकी शोभाके लिये इन्द्रियका आदिमें सन्निवेश किया है।' कैसा अच्छा समाधान है ? सूत्रोंकी रचना सुन्दरताकी दृष्टिसे की जाती है यह एक नई खोज है । इन्द्रियकी जगह 'अवत' रखनेसे सूत्र कसे असुन्दर हो जाता यह तो गणिजी ही बतला सकते हैं । वास्तवमें यदि सूत्रकारने ही भाष्य बनाया होता या भाष्यकारने ही सूत्र बनाया होता तो इस तरह के व्यतिक्रम भाष्य और सूत्र में कदापि न मिलते या कम से कम उसके द्वारा सूत्र और भाष्यमें व्यतिक्रम होनेका कारण तो बतला दिया जाता।
५. पं० सुखलालजीका कहना है कि भाष्यमें सन्देह या विकल्प नहीं पाया जाता । किन्तु तीसरे अध्यायके प्रथम सूत्रमें आगत 'घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः' पदका अर्थ करते हुए भाष्यकारने लिखा है-'अम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः' इति सिद्धे घन ग्रहण क्रियते तेनायमर्थः प्रतीयते।'
१. 'प्राणापानावष्ट नेऽध्याये नामकर्मणि गतिजात्यादिसूत्रे......"इत्यत्र भाष्ये
व्याख्यास्येते कथं तहि व्याख्यातो' वही पृ० ३४२ । २. 'तत्रेन्द्रिय कषायानुल्लङ्घयाव्रतान्येव व्याचष्टे भाष्यकारः । किं पुनरत्र प्रयो
जनमिति । उच्यते-अयमभिप्रायो भाष्यकारस्य–हिंसादीन्यव्रतानि सकलास्रवजालमूलानि तत्प्रवृत्तास्रवेष्वेव प्रवृत्तिस्तन्निवृतौ च सर्वास्रवेम्यो निवृत्तिरित्यस्यार्थस्य ज्ञापनार्थ सूत्रोक्तक्रममतिक्रम्याव्रतानि व्याचष्टे भाष्यकारः । सूत्रबन्धशोभाहेतोरिन्द्रियादिसन्निवेश-वही, भा॰ २, पृ० १० ।