________________
तत्त्वार्थविषयक मूल साहित्य : २४१
सर्वार्थ सिद्धि वगैरहको रखा जा सकता है । अतः भाष्य और सूत्रोंकी एक कर्तु - कताके सम्बन्धमें चतुर्थ युक्ति भी वजनदार नहीं है ।
अब हम ५वीं युक्तिपर विचार करेंगे—
प्रथम तो सूत्रोंका अर्थ करनेमें शब्दोंकी खींचातानीका न होना, सन्देह या विकल्पका न होना, आदि बातें किसी व्याख्याके सूत्रकार कृत होनेमें नियामक नहीं हो सकतीं; क्योंकि पातञ्जल सूत्रोंपर विरचित व्यास भाष्यमें भी उक्त बातें पाई जाती हैं, किन्तु वह सूत्रकार कृत नहीं है ।
दूसरे, तत्त्वार्थसूत्रका उक्त भाष्य उक्त बातोंसे एक दम अछूता भी नहीं हैं । सबसे प्रथम उल्लेखनीय है — सूत्र और भाष्यका पारस्परिक विरोध । सूत्र और भाष्य में विरोध
१. 'इन्द्र सामानिक' (४-४) आदि सूत्रमें देवोंके दस भेद बतलाये हैं और उसके भाष्यके आरम्भमें भी 'एकैकशश्चैतेषु देवनिकायेषु देवा दशविधा भवन्ति' लिखकर दस भेद ही बतलाये हैं । किन्तु आगेके भाष्यमें उन भेदोंका अर्थ करते हुए 'अनीकाधिपति' नामके भी एक भेदको गिनाया है, जबकि सूत्रमें केवल 'अनीक' नामका एक ही भेद है । सिद्धसेन गणिने अपनी टीका में इसका समन्वय करते हुए लिखा है कि आचार्यने तो सूत्र में केवल अनीकोंका ही ग्रहण किया है, अनीकाधिपतियोंका नहीं; किन्तु भाष्यमें उनका भी निर्देश है। अनीक और अनी काधिपतियोंको एक मानकर भाष्यकारने ऐसा व्याख्यान कर दिया है, अन्यथा तो दस संख्याका नियम टूट जाता है ।'
....
२. इसी तरह सूत्र (४-२६) में लौकान्तिक देवोंके नौ भेद गिनाये हैं किन्तु भाष्यमें उनकी संख्या आठ ही लिखी है । इस बातको भी सिद्धसेन गणिने अपनी टीकामें उठाया है ।
इस तरह की बातें सूत्रकार और भाष्यकारकी एकतामें सन्देह पैदा करती हैं । तत्त्वार्थ सूत्र जैसे सूत्र ग्रन्थके रचयिताके द्वारा रच गये भाष्य में इस प्रकारकी असावधानी नहीं हो सकती । एक और उदाहरण लीजिये
३. पाचवें अध्यायके १९ वें सूत्रके भाष्य में लिखा हैं - 'प्राणापानौ च नाम
१. 'सूत्रे चानीकान्येवोपात्तानि सूरिणा नानीकाधिपतयः, भाष्ये पुनरुपन्यस्तास्तदेकत्वमेवानोकानीकाधिपत्योः परिचिन्त्य विवृतमेवं भाष्यकारेण । अन्यथा वा दससंख्या भिद्येत । ' - सि० ग० टी०, भा० १, पृ० २७६ ।
२. ' नन्वेवमेते नवभेदा भवन्ति भाष्यकृता चाष्टविधा इति मुद्रिताः । सि० टी०, भा० १, पृ० ३०७ ।
१६