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तत्त्वार्थविषयक मूल साहित्य : २३९ यहाँ टिप्पणकारने भाष्यकारका नाम न देकर उसके लिये ‘स कश्चिद्' शब्दोंका प्रयोग किया है। इससे स्पष्ट ध्वनित होता है कि टिप्पणकारको शायद भाष्यकारका नाम मालूम नहीं था। और वह उसे मूलसूत्रकारसे भिन्न समझता था। इसी टिप्पणकारने आगे लिखा है
परमेतावच्चतुरैः कर्तव्यं श्र णुत वच्मि स विवेकः ।
शुद्धो योऽस्य विधाता स दूषणीयो न केनापि ॥४॥ टि०-'एवं चाकर्ण्य वाचको हयुमास्वातिदिगम्बरो निह्नव इति केचिन्मावदन्नदः शिक्षार्थ 'परमेतावच्चतुरैरिति' पद्यं ब्रूमहे-शुद्धः सत्यः प्रथम इति यावद्यः कोऽप्यम्य ग्रन्थस्य निर्माता स तु केनापि प्रकारेण न निन्दनीय एतच्चतुरैविधेयमिति' ।
अर्थात्-ऐसा सुनकर 'वाचक उमा स्वाति निश्चयसे दिगम्बर है, निह्नव है ऐसा कोई न कहे, इस बातकी शिक्षाके लिये हम 'परमेतावच्चतुरैः' आदि पद्य कहते हैं। जिसका आशय यह है कि चतुर जनोंको जो कर्तव्य है उसे सुनो, मैं विवेक पूर्वक कहता हूँ । इस ग्रन्थका जो कोई भी शुद्ध सत्य (वास्तविक) आद्य निर्माता है उसकी किसी भी तरह निन्दा नहीं करनी चाहिये ।
टिप्पणकारने उक्त श्लोक अपने सम्प्रदायके उन लोगोंको लक्ष्य करके लिखा है जो तत्त्वार्थसत्रके कर्ता वाचक उमास्वातिको दिगम्बर निह्नव कहते थे क्योंकि उसके भाष्यमें अनेक वातें ऐसी भी हैं जो श्वेताम्बरीय आगम सम्मत नहीं हैं। ____ उक्त श्लोकोंसे तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यके कर्तृत्व आदिके विषयमें श्वेताम्बर सम्प्रदायमें जो प्रवाद फैला हुआ था उसपर अच्छा प्रकाश पड़ता है। उनसे तीन बातें व्यक्त होती हैं
१. तत्त्वार्थ सूत्रको दूसरे लोग (दिगम्बर) ग्रहण कर लेगें इस बातको पहलेसे ही जानकर किसीने उसपर भाष्य रचकर उसे अपना लिया अर्थात् श्वेताम्बर सम्प्रदायका बना डाला।
२. श्वेताम्बर लोग तत्वार्थ शास्त्रके कर्ता उमास्वातिको दिगम्बर निह्नव कहकर उसकी निन्दा करते थे।
३. तत्त्वार्थ सूत्रका आद्य निर्माता कौन था इसमें भी विवाद था।
अतः श्वेताम्बर परम्परामें भी सूत्रकार और भाष्यकारके ऐक्यके सम्बन्धमें सर्वथा ऐक्यमत्य या निर्विवाद जैसी स्थिति प्रतीत नहीं होती।