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२३८ : जनसाहित्यका इतिहास
३. भाष्यकी प्रारम्भिक अंगभूत कारिकाके व्याख्यानमें आ० देवगुप्त भी सूत्र और भाष्यको एककर्तृक सूचित करते हैं ।
४. प्रारम्भिक कारिकाओंमें और कुछ स्थानोंपर भाष्यमें भी 'वक्ष्यामि' 'वक्ष्यामः' आदि प्रथम पुरुषका निर्देश है।
५. भाष्यमें किसी स्थल पर सूत्रका अर्थ करनेमें शब्दोंकी खींचातानी नहीं हुई, कहीं भी सूत्रका अर्थ करनेमें सन्देह या विकल्प करनेमें नहीं आया । इसी प्रकार सूत्रकी किसी दूसरी व्याख्याको मनमें रखकर सूत्रका अर्थ नहीं किया गया । और न कहीं सूत्रके पाठभेदका ही अवलम्बन लिया गया।
यह ठीक है कि सिद्धसेन गणि आदि श्रेताम्बराचार्योने सूत्रकार और भाष्यकारको एक माना है। किन्तु गणिजीने अपनी टीकामें सूत्रकारके लिये सूत्रकार और भाष्यकारके लिये भाष्यकार शब्दोंका ही प्रयोग किया है । एक भी जगह दोनोंको एक मानकर शब्दोंका व्यतिक्रम नहीं किया। यह बात खास ध्यान देने योग्य है । तथा पहले तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी जिस सटिप्पण प्रतिका उल्लेख किया है जो कि किसी रत्नसिंह नामक श्वेताम्बराचार्य रचित है, उसके अन्तमें ९ पद्य पाये जाते हैं जो टिप्पणकार कृत हैं। उनपर टिप्पणकारकी स्वोपज्ञ टिप्पणी भी है । उससे प्रथम पद्य तथा टिप्पणी नीचे दी जाती है
प्रागेवैतददक्षिणभषणगणादास्थमानमिव मत्वा । __ त्रातं समूलचूलं स भाष्यकारश्चिरं जीयात् ॥१॥ टि०-'दक्षिणे सरलोदाराविति हमः' । अदक्षिणा असरलाः स्ववचनस्पैव पक्षपातमलिना इति यावत्त एव भषणाः कुकुंरास्तेषां गगैरादास्यमानं पहिष्यमानं स्वायत्तीकरिष्यमाणमिति यावत् तथाभूतमिवैततत्वार्थशास्त्रं प्रागेव पूर्वमेव मत्वा ज्ञात्वा येनेति शेषः । सह मूलचूलाभ्यामिति समूलचूलं त्रातं रक्षितं स कश्चिद् भाष्यकारों भाष्यकर्ता चिरं दीर्घ जीयाज्जयं गम्यादित्याशीर्वचोऽस्माकं लेखकानां निर्मल ग्रन्थरक्षकाय प्राग्वचनचौरिकायामशक्यायेति ।
अर्थात्-जिसने इस तत्त्वार्थ शास्त्रको अपने ही वचनके पक्षपात से मलिन अनुदार कुत्तोंके समहों द्वारा प्रहीष्यमान जैसा जानकर पहले ही इस शास्त्रकी मूलचूल सहित रक्षाकी वह भाष्यकार (जिसका नाम मालूम नहीं) चिरंजीवि होवे, ऐसा हम लेखकोंका उस निर्मल ग्रन्थके रक्षक तथा प्राचीन वचनोंकी चोरीकरनेमें असमर्थके प्रति आशीर्वाद है।' १. 'गुणान् लक्षणतो वक्ष्यम.'-५-३७ का भाष्य । 'तं पुरस्ताद् वक्ष्यामः'
५-२२ भाष्य ।