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________________ तत्त्वार्थविषयक मूल साहित्य : २३७ शुरूमें पाई जानेवाली सम्बन्ध कारिकाओंमेंसे एक इसप्रकार है'तत्त्वार्थाधिगमारव्यं वह्वर्थं सङ्ग्रहं लघुग्रन्थम् । वक्ष्यामि शिष्य हितमिदमर्हद्वचनैकदेशस्य ॥ २२॥ इसमें तत्त्वार्थाधिगम नामक लघुग्रन्थको रचनेकी प्रतिज्ञा की गई है । टीकाकार श्री देवगुप्तने 'लघुग्रन्थम्' का अर्थ ' श्लोकशतद्वयमात्रं ' किया है । इससे प्रतीत होता है ये सम्बन्ध कारिकाएँ मूलसूत्रकी ही अंगभूत होनी चाहिये । क्योंकि मूलसूत्रों का प्रमाण दोसौ श्लोकमात्र संभव है । भाष्यका प्रमाण तो उससे बहुत अधिक है । किन्तु इन कारिकाओं की स्थिति ऐसी है कि यदि उन्हें इस सूत्रग्रन्थसे अलग कर दिया जाये तो — उसकी अखण्डतामें उससे कोई क्षति नहीं पहुँचती । श्री पं० सुखलालजीने भाष्य सम्मत तत्त्वार्थ सूत्रके मूलसूत्रोंका जो गुजराती तथा हिन्दीमें अनुवाद किया है उसमें केवल सूत्र ही हैं और सम्भवतया श्वेताम्बर परम्परामें तत्त्वार्थ सूत्रकी इस प्रकारकी पहली टीका हैं। पं० जी इन कारिकाओंको भाष्यका अंग भी मानते हैं । उक्त सम्बन्ध कारिकाओंके पश्चात् मूलसूत्र ग्रन्थ प्रारम्भ होता है । प्रथम सूत्रका अन्य कोई उत्थानिका वाक्य नहीं । भाष्यका आरम्भ प्रथम सूत्रकी व्याख्याके रूपमें होता है । भाष्यमें आगे आनेवाले सूत्रोंका 'पूर्वनिर्देश होनेसे यह तो स्पष्ट ही है कि भाष्यकारके सामने पूरा मंत्रग्रन्थ मौजूद था, अथवा भाष्यकी रचनासे पूर्व सूत्रग्रन्थ रचा जा चुका था । इतना प्राथमिक कथन करनेके पश्चात् हम अपने प्रकृत विषयपर आते हैं । श्री पं० सुखलालजीने भाष्य स्वयं उमास्वातिकृत है यह बात नीचे लिखे प्रमाणोंसे निर्विवाद सिद्ध बतलाई है १. भाष्यकी उपलब्ध टीकाओंमें सबसे प्राचीन टीका सिद्धसेन की है । उसमें स्वोपज्ञता सूचक उल्लेख पाये जाते हैं । २. भाष्यगत अन्तिम कारिकाओंमेंसे आठवीं कारिकाको हरिभद्राचार्यने शास्त्रवार्ता समुच्चयमें उमास्वाति कर्तृक रूपसे उद्धृत किया है । १. उक्तमवगाहनमाकाशस्य ' - ( ३ - १ ) । ' उक्तं भवता - मानुषस्य स्वभाव मार्दवार्जवं चेति । तत्र के मनुष्या ।' (३-१४ ) की उत्थानिका । २. 'शास्तीति च ग्रन्थकार एव द्विषा आत्मानं विभज्य सूत्रकार-भाष्यकाराकारेणैवमाह' – (सिद्ध० टी०, भा० १, १०७२ ) । सूत्रकारादविभक्तोऽपि भाष्यकार ः ' - वही, पृ० २०५ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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