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________________ २३६ : जनसाहित्यका इतिहास बतलाया है। यापनीय इन्हें धर्मका साधन नहीं मानते थे। अपराजित' सूरिने केवल कमंडलु और पीछीको संयमका उपकरण माना है। तथा शीतसे पीड़ित साधुको वायुके प्रवेशसे रहित स्थान देनेको लिखा है किन्तु वस्त्र दानका रंच मात्र भी विधान नहीं किया है। अतः भाष्यकार तो वस्त्रपात्रवादी श्वेताम्बर होने चाहिए। किन्तु जिसने भाष्य बनाया है उसीने तत्त्वार्थ सूत्रको भी बनाया है, यह बात विवादग्रस्त है। यदि केवल सूत्रोंको सामने रखकर सूत्रकारकी परम्पराका विचार किया जाये तो वह किसी सम्प्रदाय विशेषके पक्षपाती न होकर एक शुद्ध तात्विक जैनमात्र प्रतीत होते हैं। इसीसे उनके द्वारा रचित तत्त्वार्थसूत्रको दोनों परम्पराओंने अपनाया जबकि भाष्य एक परम्पराका ही होकर रह गया। क्या भाष्य और सूत्रोंका कर्ता एक ही है ? दिगम्बर परम्परामें मूल तत्त्वार्थ सूत्रकी प्रतियाँ बहुतायतसे उपलब्ध होती हैं तथा मूलसूत्रोंके पठनपाठनका भी प्रचार अधिक है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परामें मूल तत्वार्थ सूत्रको प्रतियाँ क्वचित् ही उपलब्ध होती हैं और उसके मूलमात्रका प्रचार भी कम ही रहा है। दिगम्बर परम्पराके आचार्योंने भी केवल मूल तत्त्वार्थ सूत्र पर ही अपनी महत्त्वपूर्ण टीकाएं रची थीं। किन्तु श्वेताम्बर परम्पराके टीकाकारोंने सभाष्य तत्त्वार्थ सूत्र पर ही अपनी टीकाएँ रचों हैं । इस तरहसे श्वेताम्बर परम्परामें भाष्य सूत्रोंके साथ एक ग्रन्थके रूपमें ही माना जाता रहा है। दिगम्बर परम्परा मूल तत्त्वार्थ सूत्रकी जो प्रतियाँ पाई जाती हैं, उनके आदि और अन्तमें अनेक गाथाएँ तथा श्लोक भी पाये जाते हैं, किन्तु वे तत्त्वार्थ सूत्रके अंग नहीं हैं, क्योंकि किसी भी टीकाकारकी टीकामें उनका संकेत तक नहीं पाया जाता। किन्तु श्वेताम्बर परम्पराके सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम सूत्रके आदिमें उत्थानिका परक तथा अन्तमें उपसंहार परक अनेक संस्कृत कारिकाएँ पाई जाती हैं। वे कारिकाएँ भाष्यकी अंगभूत हैं या तत्त्वार्थ सूत्रकी अंगभूत हैं, यह विचारणीय है। पं० श्री जुगलकिशोरजी मुख्तारने अनेकान्त वर्ष ३, कि १ में मूलतत्त्वार्थाधिगम सूत्रकी एक सटिप्पण प्रतिका परिचय कराया था। उनके परिचयके अनुसार उस प्रतिमें सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम सूत्रके शुरूमें जो ३१ सम्बन्ध कारिकाएँ पाई जाती है, और अन्तमें ३२ पद्य तथा प्रशस्तिके ६ पद्य पाये जाते हैं, वे सब कारिकाएँ एवं पद्य इस सटिप्पण प्रतिमें ज्योंके त्यों पाये जाते हैं और उस परसे ऐसा मालूम होता है कि टिप्पणकारने उन्हें मूल तत्त्वार्थाधिगम सूत्रका ही अंग समझा है । १. सयंम सध्यते येनोपकरणेन तावन्मानं कमंडल-पिच्छमात्र'-भ० आ० टी०, गा० १६२।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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