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तत्त्वार्थविषयक मूल साहित्य : २३५
अपवाद रूपमें भी कुछ सूत्र हैं। यथा-' - 'शुक्ले' चाद्ये पूर्वविदः' यह सूत्र दिगम्बर परम्पराके पाठानुसार है । वहाँ उसका नम्बर ( ९ - ३७ ) है । भाष्य सम्मत पाठमें यह सूत्र दो सूत्रोंमें (शुक्ले चाद्ये ॥ ९ ३९ ।। और 'पूर्वविदः ॥ ९-४० ।। ) विभाजित है । किन्तु अपराजित सूरिने इसे एक सूत्रके रूपमें ही उद्धृत किया है ।
इसी तरह एक और सूत्र उद्धृत है - 'आज्ञापायविपाक संस्थानविचयाय धर्म्यम्' । यह भी दिगम्बर सूत्र पाठके ही अनुसार है । भाष्य सम्मत पाठ में 'धर्म्यम्' के आगे अप्रमत्त संयतस्य (९-३७) पाठ अधिक है । इस तरहसे अपराजित सूरिने दिगम्बर सूत्र पाठको ही अपनाया है । उसका अपवाद केवल एक है और वह है भाष्य सम्मत' सूत्र (८-२६) । अपराजित सूरिने इस सूत्रको तो उद्धृत नही किया है किन्तु पुण्य प्रकृतियोंकी गणना उसीके अनुसार की है ।
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किन्तु इसके सिवाय उन्होंने केवल भाष्य सम्मत अन्य किसी सूत्रका उल्लेख नहीं किया । रहा भाष्य, उसका तो अपराजित सूरिकी टीकामें संकेत तक भी नहीं है । मानों उनके सामने भाष्य नामकी कोई वस्तु ही नहीं थी । उन्होंने ५ तत्त्वार्थ सूत्रकी सर्वार्थसिद्धि टीकाका ही एक मात्र प्रचुरतासे उपयोग किया है, क्वचित्-क्वचित् अकलंक देवके तत्त्वार्थं वार्तिकको भी अपनाया जान पड़ता है । भाष्यकी - यदि वह उनके सामने उपस्थित था तो इस उपेक्षासे ही यह स्पष्ट है कि भाष्यकार यापनीय नहीं था । भाष्यमें (९-५) एषणासमिति और आदान निक्षेपण समितिका स्वरूप बतलाते हुए पात्र चीवर वगैरहको धर्मका साधन
१ 'न कृतश्रुतपरिचयस्य धर्मशुक्लध्याने' भवितुमर्हतः । .' शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः' इत्यभिहितत्वाच्च - भ० आ० टी०, गा० १०४ ॥
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२. 'आज्ञापायविपाकविचयाय धर्म्यम्' इति सूत्रम् - भ० आ० टी० गा० १६९९ ।
३. 'सद्वेद्य - सम्यक्त्व - हास्य- रति पुरुषवेद- शुभायु-नीच गोत्राणि पुण्यम् । -'
४. 'सद्वेद्यं सम्यक्त्व - रति- हास्यपुंवेदाः शुभे नामगोत्रे शुभं चायुः पुण्यं एतेभ्योऽन्यानि पापानि । - भ० आ० टी०, गा० १८३४ ।
५. भ० आ० गा० ४६ की टीकामें सत्य धर्म त्याग धर्म वगैरहके लक्षण सर्वा० सिद्धिके अनुसार हैं । गा० ५६ की टीकामें 'तत्त्वार्थ' की व्याख्या, गा० ११५ की टीकामें संवेग, गुप्ति आदिका लक्षण, गा० १३९ की टीकामें स्वाध्यायके भेदोंके लक्षण, गाथा ८०७ की टीकामें क्रियाओंके लक्षण, गा० ८११ की टीका में जीवाधिकरण के भेद, ये सब सर्वार्थसिद्धिसे लिए गये
। और भी बहुतसे स्थल सर्वार्थसिद्धिके ऋणी हैं ।