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२३४ : जैनसाहित्यका इतिहास
धर्मसागर उपाध्यायकृत तपागच्छपट्टावली' (वि० सं० १६४६) में जिनभद्र के पश्चात् विबुधप्रभ, जयानन्द और रविप्रभका नाम देकर उनके पश्चात् उमास्वातिको युगप्रधान बतलाया है। तथा उनका समय वी. नि० सं० ११९० (वि० सं० ७२०) लिखा है। पट्टावलीसारोद्धारमें भी उमास्वातिका समय वी० नि० सं० ११९० लिखा है। किन्तु उसमें उमास्वातिके बाद जिनभद्रको बतलाया है। लोकप्रकाशमें (वि० सं० १७७८) विनय विजयगणिने जिनभद्रके पश्चात् उमास्वातिको बतलाया है ।।
धर्मसागरने तो यद्यपि तपागच्छ पट्टावलीमें उमास्वातिका नाम रविप्रभके बाद युगप्रधान रूपमें दिया है जिनका निर्देश ऊपर किया गया है। किन्तु, आर्य महागिरिके शिष्य बहुल (बलि), बलिस्सहमेंसे वलिस्सहके शिष्य स्वातिको ही तत्त्वार्थसूत्र वगैरहका कर्ता बतलाया है ।
इससे प्रतीत होता है कि श्वेताम्बर सम्प्रदायके लेखक भी उमास्वातिके समय तथा परम्परा आदिके सम्बन्धमें अंधेरेमें रहे हैं और उन्होंने बहुत पीछे उन्हें अपनी परम्परामें बैठानेका प्रयत्न किया है। फिर भी पं० सुखलालजीने उन्हें भाष्यके आधारपर श्वेताम्बर परम्पराका ही सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है।
तथा भाष्यमें भी अनेक ऐसे प्रसंग हैं जो श्वेताम्बर आगमोंके साथ मेल नहीं खाते ।
चूंकि उमास्वातिने अपने भाष्यकी प्रशस्तिमें अपने जिन गुरुओं और प्रगुरुओंके नाम दिये हैं, वे न तो दिगम्बर परम्परामें मिलते हैं और न श्वेताम्बर परम्परामें । अतः श्री नाथूराम जी प्रेमीका ऐसा विचार है कि वे इन दोनोंके अतिरिक्त किसी तीसरे सम्प्रदायके थे और वह शायद यापनीय सम्प्रदाय हो । अपनी संभावनाकी पुष्टिमें उन्होंने भाष्य और प्रशस्तिके प्रकाशमें कुछ प्रमाण भी दिये हैं जो कुछ संभावनाओंपर अवलम्बित हैं । अतः उनके आधारपर उमास्वातिको यापनीय नहीं माना जा सकता। ___भगवती आराधनाके टीकाकार श्री अपराजित सूरिने जो कि यापनीय थे, अपनी टीकामें तत्त्वार्थ सूत्रसे अनेक सूत्र उद्धृत किये हैं। किन्तु उनके द्वारा उद्धृत सूत्र प्रायः वे ही हैं जो दोनों सूत्र पाठोंमें समान रूपसे पाये जाते हैं । इसके १. 'श्री० वी० नवत्यधिककादशशत ११९० वर्षे श्री उमास्वातियुगप्रधान. ।'
-पट्टा० स०, पृ० १५२ । २. पट्टा० स०, पृ० १५२ । ३. 'आर्यमहागिरेस्तु शिष्यो बहुलवलिस्सही यमलभ्रातरौ, तस्य वलिस्सहस्य शिष्यः स्वातिः तत्त्वार्थादयो ग्रन्थास्तु तत्कृता एव संभाव्यन्ते।' ।
-पट्टा० स०, पृ० ४६ ।