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________________ भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : १३ दूसरा उल्लेख इस प्रकार है जलसिहरे विक्खंभो जलणिहिणो जोयणा दससहस्सा । एवं संगाइणिए लोयविभाए विणिद्दिष्टुं ॥२४४८॥ अ० ४ । 'जल शिखर पर लवण समुद्रका विस्तार दस हजार योजन है। इस प्रकार संगाइणीमें और लोक विभागमें कहा है'। ___ यहाँ तो दोनों पृथक्-पृथक् हैं अतः 'संगाइणी और लोक विभाग' अर्थ करना ही उचित प्रतीत होता है । यह संगाइणी भी उक्त संग्रहणी ही प्रतीत होती है । अस्तु, लोकायनीका निर्देश ति०प० में एक उल्लेख लोकायिनी का मिलता है जो इस प्रकार है कप्पं पडि पंचादी पल्ला देवीण वहदे आऊ । दो दो वड्ढी तत्तो लोयायणिये समुद्दिढें ॥५३०॥ 'देवियोंकी आयु प्रथम कल्पमें पाँच पल्य प्रमाण हैं । इसके आगे प्रत्येक कल्पमें दो-दो पल्यकी वृद्धि होती गई है, ऐसा लोकायिनी में कहा है'। संगायणी की तरह लोकायनी भी कोई ग्रन्थ प्रतीत होता है । 'अयण' अन्त वाले ये नाम कुछ विचित्रसे प्रतीत होते हैं । शायद पुराकालमें इस तरहके ग्रन्थ नामोंका प्रचलन रहा हो। किन्तु त्रिलोकप्रज्ञप्तिके सिवाय अन्यत्र इनका कोई निर्देश नहीं मिलता। लोक विनिश्चयका उल्लेख ति० प० में संगायणी आदिकी तरह लोकविनिश्चय नामक ग्रन्थके भी अनेक उल्लेख हैं जो इस प्रकार हैं सोलस कोसुच्छेहं समचउरस्सं तदद्धवित्थारं । लोयविणिच्छयकत्ता देवच्छन्दं परूवेइ ॥१८६६।। अ० ४ । 'लोकविनिश्चयके कर्ता देवच्छन्दं को समचतुष्कोण सोलह कोस ऊंचा और इससे आधे विस्तारसे संयुक्त बतलाते हैं। १. ति०प० अ० ४, गा० १८६५में देवच्छन्दको दो योजन ऊंचा, एक योजन विस्तार वाला और चार योजन लम्बा कहा है। किन्तु तत्वार्थ वातिक (३।१०) में लोकविनिश्चयके अनुसार सोलह योजन ऊंचा और ८ योजन विस्तार वाला कहा है।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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