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१४ : जेनसाहित्यका इतिहास
वासो पणघणकोसा तदुगुणा मंदिराण उच्छेहो।
लोयविणिच्छयकत्ता एवं माणे णिस्वेदि ॥१९७५॥-अ० ४ । 'मन्दिरोंका विस्तार पाँचका घन अर्थात् एकसौ पच्चीस कोस प्रमाण और ऊँचाई इससे दुगुणी है। इस प्रकार लोकविनिश्चयके कर्ता इनके प्रमाणका निरूपण करते हैं।
ताणं च मेरुपासे पंचसया जोयणाणि वित्थारो।
लोयविणिच्छयकत्ता एवं णियमा परूवेदि ॥२०२८॥ 'नील और निषध पर्वतके पासमें वक्षार' पर्वतोंका विस्तार दोसौ पचास योजन है इससे आगे मेरुपर्वतपर्यन्त प्रत्येकमें प्रदेश वृद्धि होनेसे मेरुके पासमें उनका विस्तार पाँचसौ योजन प्रमाण हो गया है। इस प्रकार लोकविनिश्चयके कर्ता नियमसे निरूपण करते हैं।
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ते चउचउकोणेषु एक्केक्कदहस्स होंति चत्तारि ।
लोयविणिच्छयकत्ता एवं णियमा परूवेति ॥६९।-अ० ५ । 'वे रतिकर पर्वत प्रत्येक द्रहके चार-चार कोनोंमें चार होते हैं । इस प्रकार लोकविनिश्चयकर्ता नियमसे निरूपण करते हैं।
लोयविणिच्छयकत्ता कुंडलसेलस्स वण्णणपयारं ।
अवरेण सरूवेणं वक्खाणइ तं परूवेमो ॥ १२९ ॥-अ० ५ । 'लोकविनिश्चयके कर्ता कुण्डल पर्वतका वर्णन दूसरे प्रकारसे करते हैं उसे यहाँ कहते हैं
१. ति०प० अ० ४, २०१७में वक्षार पर्वतोंका सर्वत्र विस्तार पाँचसौ योजन
कहा है। किन्तु तत्वार्थ वार्तिकमें (३।१०) लोकविनिश्चयके समान मेरुके पासमें पाँचसौ योजन और नील-निषधके पासमें २५० योजन विस्तार कहा है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमें (७-१८) उनका विस्तार सर्वत्र ५०० योजन
बतलाया है । त्रि०सा० (गा० ७५३)में भी इतना ही विस्तार कहा है। २. ति०प० गा० (५-६९)में वापियोंके दोनों बाह्य कोणोंमें दो ही रतिका बत
लाये हैं। किन्तु तत्वार्थवार्तिकमें (३।१५) लोकविनिश्चयके अनुसार चार
चार रतिकर बतलाये हैं। ३. तत्त्वार्थवार्तिक (३॥३५) में कुण्डलवर और रुचकवर द्वीपका वर्णन लोक
विनिश्चियके अनुसार है।