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________________ १२ : जेनसाहित्यका इतिहास मतान्तर दिये गये हैं। ऐसा ग्रन्थ अग्रायणी पूर्व नहीं हो सकता । क्योंकि उसका प्रतिपाद्य विषय द्रव्यानुयोग है, न कि करणानुयोग । . दूसरे, अग्रायणीय पूर्व तो गणधर गौतमके द्वारा प्रथित हुआ था वह किसी आचार्यकी रचना नहीं था। किन्तु 'सग्गायणी' के साथ त्रिलोक प्रज्ञप्तिकारने आचार्य और कर्ता शब्दोंका भी प्रयोग किया है। इससे वह कोई आचार्य रचित ग्रन्थ प्रतीत होता है और उसका प्रतिपाद्य विषय लोकानुयोग था। उक्त सब मतान्तर उस एक ही ग्रन्थके प्रतीत होते हैं । लिपि कर्ताओंके दोषसे एक ही ग्रन्थ सग्गायणी, संगाइणी, संगायणी, संगोयणी और संगाहणी नामोंसे निर्दिष्ट हुआ जान पड़ता है । ग्रन्थका मूल नाम संगहणी होना चाहिये। श्वेताम्बर साहित्यमें संग्रहणी नामके ग्रन्थ मिलते हैं। एक वृहत्संग्रहणी नामक ग्रन्थ जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कृत है। इनका समय विक्रमकी सातवीं शताब्दीका उत्तरार्ध है । उस ग्रन्थमें भी करणानुयोगका ही विषय है।। त्रिलोक प्रज्ञप्तिकारके सन्मुख भी कोई प्राचीन संग्रहणी नामक ग्रन्थ रहा होगा । उसीके मतभेदोंका निर्देश उन्होंने त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें किया है। उक्त उल्लेखोंके सिवाय 'मग्गायणी' और 'संगाइणि' का निर्देश क्रमसे 'लोक विनिश्चय' और 'लोक विभाग' के साथ भी मिलता है। दोनों उल्लेख इस प्रकार हैं 'दसविंद भूवासो पंच सया जोयणाणि मुहवासो। एवं लोयविणिच्छय मग्गायणिए मुदीरेदि ॥१९८॥-अ० ४ । 'बलभद्र कूटका भूविस्तार दसके धनरूप अर्थात् एक हजार योजन और मुख विस्तार पाँच सौ योजन प्रमाण है । इस प्रकार लोकविनिश्चय मग्गायणीमें कहा है। यहाँ 'लोकविनिश्चय और मग्गायणी' भी हो सकता है और लोकविनिश्चय सम्बन्धी मग्गायणी अर्थ भी हो सकता है। लोकविनिश्चयके अन्य भी उल्लेख त्रिलोक प्रज्ञप्तिमें हैं। अतः यह तो निर्विवाद है कि लोकविनिश्चय नामक कोई ग्रन्थ त्रिलोकप्रज्ञप्तिकारके सम्मुख था। किन्तु यह मग्गायणी उसीका कोई भाग था या स्वतंत्र ग्रन्थ यही विचारणीय है। लोकविनिश्चयके साथ आगत मग्गायणीको प्रो० हीरालाल जीने अग्गायणीय नामक दूसरा पूर्व माना है। किन्तु हमें यहाँ भी सग्गायणी पाठ ठीक प्रतीत होता है । 'स' और 'म' में ज्यादा अन्तर नहीं है अतः लोकविनिश्चयके साथ उक्त संग्रहणीका ही उल्लेख यहां प्रतीत होता है।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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