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________________ भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : ११ यह सग्गायणी और संगोयणी एक ही प्रतीत होते हैं। लिपि कर्ताके कारण इनमें भेद पड़ गया प्रतीत होता है । चउजोयण उच्छेहं पणसहदीहं तदद्धवित्थारं । सग्गायणि आइरिया एवं भासंति पंडुसिलं ॥ १८२१ ॥-४ अ० 'यह पाण्डुक शिला चार योजन ऊंची, पाँच सौ योजन लम्बी और इससे आधे अर्थात् अढ़ाई सौ योजन प्रमाण विस्तारसे सहित है। इस प्रकार सग्गायणि आचार्य कहते हैं। सिरिभद्दसाल वेदी वक्खार गिरीण अंतर पमाणं ।। पंच सम जोयणाणि सग्गायणियम्मि णिद्दिष्टुं ॥२०२९॥-अ० ४ 'श्रीभद्रशाल वनकी वेदी और वक्षारगिरियोंके अन्तरका प्रमाण पाँच सौ योजन सग्गायणीमें बतलाया है। x वसइणियादीणं पुह पुह चुलसीदिलक्ख परिमाणं । पढमाए कक्खाए सेसासु दुगुण दुगुण कमे ॥२७॥ एवं सत्तविहाणं सत्ताणीयाण होंति पत्तेक्कं । संगायणि आइरिया एवं णियमा परूवेति ॥२७२॥-अ० ८ । 'देवेन्द्रोंकी प्रथम कक्षामें वृषभादिक अनीकोंका प्रमाण पृथक् पृथक् चौरासी लाख है। शेष कक्षाओंमें क्रमशः इससे दूना-दूना है। इस प्रकार सात प्रकार सप्तानीकोंमें से प्रत्येकके है, ऐसा संगायणि आचार्य नियमसे निरूपण करते हैं। सगवीसं कोडीओ सोहम्मिदेसु होंति देवीओ। पुव्वं पिव सेसेसुं संगाहणियम्मि णिद्दिढें ॥३८७॥-अ० ८ । 'सौधर्म इन्द्रके सत्ताईस करौड़ और शेष इन्द्रोंके पूर्वोक्त संख्या प्रमाण देवियाँ होती हैं । ऐसा संगाहणिमें कहा है। __उक्त मतभेदोंसे यह स्पष्ट है कि जिस ग्रन्थसे वे मतभेद लिये गये हैं उनमें कम से कम मध्यलोकका तो विस्तृत वर्णन था। यदि ऐसा न होता तो गंगा, गंगा कुण्ड, भद्रसालवन और वक्षारगिरिका अन्तर तथा पाण्डुक शिलाका वर्णन उसमें कहाँसे होता। इसी तरह उसमें स्वर्गलोकका भी वर्णन था। और जहाँ इन दोनोंका वर्णन हो वहाँ नरकलोका वर्णन न हो, ऐसा नहीं हो सकता । अतः उक्त ग्रन्थमें अवश्य त्रिलोकका वर्णन था। इसीसे त्रिलोक प्रज्ञप्तिमें उसके
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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