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________________ १० : जेनसाहित्यका इतिहास ग्रन्थ-नामोल्लेख त्रिलोकप्रज्ञप्ति में लोकविनिश्चय, लोकविभाग और मूलाचारके सिवाय मग्गायणी लोकायनी, संगाइणी, आदिका उल्लेख मिलता है । सग्गायणी, संगायणी, संगाइणी, संगाहणी, और संगोयणी ये सब भिन्न ग्रन्थ प्रतीत नहीं होते, बल्कि लिपिकारोंके दोषसे ही इन विविध रूपोंकी सृष्टि हुई जान पड़ती है । चौदह पूर्वोमेंसे दूसरे पूर्वका नाम अग्रायणीय था । प्राचीन प्राकृत ग्रन्थोंमें इसका रूप अग्गाणीय या अग्गेणिय पाया जाता है । ति० प० की प्रस्तावनामें प्रो० हीरालाल जीने ( पृ० ११) सग्गायणी आदिको भी अग्गायणीयका ही भ्रष्ट रूप माना है और लिखा है कि जब कि इस रचनाका उसके मतभेदोंके स्पष्ट कथन सहित इतने वार उल्लेख किया जाता है तब इसका यह अर्थ हो सकता है कि तिलोयपण्णत्तिकारको अग्रायणीय पूर्वका सविवरण वृत्तान्त उप लब्ध था । हमें खेद है कि प्रोफेसर साहब के उक्त मतसे हम सहमत नहीं हो सकते और उसके कई कारण हैं । प्रथम तो अग्रायणीय पूर्वमें वर्णित विषयके साथ त्रिलोकप्रज्ञप्ति में प्रतिपादित विषयका मेल नहीं खाता । तत्त्वार्थवार्तिक (१।२० ), धवला ( १, पृ० ) जयधवला ( मा० १, पृ० १३०), अंगप्रज्ञप्ति ( गा० ४० - ४१), नन्दी चूर्णि (सूत्र २६), और उसकी टीकाओं में प्रायः यही बतलाया है कि अग्रायणी पूर्व में सुनयों, दुर्नयोंका छ द्रव्यों और नौ पदार्थोंका, क्रियावादी आदि मतोंकी प्रक्रियाका कथन रहता है । उसमें लोक रचना सम्बन्धी विषयोंका भी कथन रहता है ऐसा दोनों परम्पराओंके किसी भी ग्रन्थमें नहीं कहा। और उक्त नामोंसे त्रिलोक प्रज्ञप्ति में जो उल्लेख मिलते हैं वे सब लोक रचनाके अन्तर्गत विषयसे सम्बद्ध है यहाँ हम उन्हें उद्धृत कर देना उचित समझते हैं । " ‘पणुवीसजोयणाइं धारापमुहम्मि होदि विक्कंभो । सग्गायणिकत्तारो एवं णियमा परुवेदि ॥ २१७॥ अ० ४' धाराके मुखमें गंगा नदीका विस्तार पच्चीस योजन है । सग्गायणीके कर्ता इस प्रकार नियमसे निरूपण करते हैं । X x वासट्ठि जोयणाइं दो कोसा होदि कुंड वित्थारो । संगोणी कत्तारो एवं णियमा परूवेदि ॥ २१९ ॥ अ० ४ x ( जिस कुण्डमें गंगा गिरती है) उसका विस्तार बासठ योजन और दो कोस है । संगोयनीके कर्ता नियमसे ऐसा कथन करते हैं ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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