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________________ भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : ९ कर्ताने उसके इस नामको सार्थक बतलाते हुए लिखा है कि यह तीनों लोकोंके प्रकाशनमें दीपके समान है । और उनका यह कथन एक दम यथार्थ है यह बात ग्रन्थके अवलोकनसे स्पष्ट हो जाती है। दिगम्बर जैन परम्परामें लोक विषयक उपलब्ध साहित्यमें तियोय पण्णत्ति ही प्राचीन हैं। और प्रायः उसीके आधार पर लोक विषयक अन्य ग्रन्थोंका निर्माण हुआ है। यह अपने विषयका एक आकर ग्रन्थ है। और इसमें अनेक प्राचीन मान्यताओं; मतान्तरों और ग्रन्थोंका उल्लेख मिलता है। उन ग्रन्थोंमेंसे आज दो एक ही उपलब्ध हैं । आधार ग्रन्थका आरम्भ करते हुए ग्रन्थकारने लिखा है कि यह 'तिलोय पण्णत्ति' जिनेन्द्र भगवानके मुखसे निर्गत और गणधर देवके द्वारा शब्द रचना रूप मालामें गूंथे गये, तथा प्रवाह रूपसे शाश्वत पदोंको लिये हुए हैं अतः एव यह सम्पूर्ण दोषोंसे रहित है और आचार्य परम्परासे मुझे प्राप्त हुई है। मैं अतिशय भक्ति द्वारा प्रसन्न किये गये गुरुके चरणोंके प्रसादसे इसे कहता हूँ। आगे त्रिलोकके व्यासादिको 'दृष्टिवादका निस्यन्द' वतलाते हुए लिखा है कि त्रिलोककी मुटाई, चौड़ाई और ऊंचाईका हम वैसा ही वर्णन करते हैं जैसा दृष्टिवाद अंगसे निकला है। उससे पूर्व लिखा है कि परमाणु भी पूरते और गलते हैं। अतः पूरण गलन क्रियासे युक्त होनेके कारण वे भी पुद्गल है ऐसा दृष्टिवादमें निर्दिष्ट है। इन उल्लेखोंसे प्रकट होता है कि त्रिलोक प्रज्ञप्तिका मूल आधार दृष्टिवाद नामक अंग है। दृष्टिवादके ही एक भेद परिकर्मके अन्तर्गत चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, और द्वीपसमुद्र प्रज्ञप्ति थीं। उन्हीं सबका यथायोग्य कथन इस ग्रन्थमें भी है क्योंकि त्रिलोकमें चन्द्र सूर्य, जम्बूद्वीप तथा शेष द्वीपसमुद्र सभी गभित हो जाते हैं । और त्रिलोकके साथ संलग्न शब्द प्रज्ञप्ति उन्हींका स्मरण करता है। यद्यपि ग्रन्थ रचनाके समय वे सब नष्ट हो चुकी थीं तथापि आचार्य परम्परासे ग्रन्थकारको उनका ज्ञान अवश्य प्राप्त हुआ था। उसे ही उन्होंने इस ग्रन्थमें निबद्ध किया है। अतः इस ग्रन्थका मूलाधार दृष्टिवाद अंग है । और सहायक वे ग्रन्थ हैं जिनके मतान्तरोंका उल्लेख इस ग्रन्थमें है। १. ति० प०, १, ६। २. ति० प० १, ८५-८७ । ३. ति० ५०, १, १४८ । ४. ति० प०, १-९९ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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