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तत्त्वार्थविषयक मूल साहित्य . २३१ आरम्भिक उत्यानिकासे केवल इतना ही प्रकट होता है कि किसी स्वहितैषी भव्यकी जिज्ञासाके फलस्वरूप किसी निर्ग्रन्थाचार्यने तत्त्वार्थ सूत्रको रचा है । यह निर्ग्रन्थाचार्य कौन थे यह उससे ज्ञात नहीं होता। सवार्थसिद्धिके पश्चात् रची गई तत्त्वार्थवार्तिकमें भी अकलंकदेवने सूत्रकारका कोई नामादि नहीं दिया। तत्त्वार्थवातिकके पश्चात् रची गई तत्त्वार्थ श्लोकवातिकमें विद्यानन्दिने भी सूत्रकारका नामोल्लेख तो स्पष्ट रूपसे नहीं किया। किन्तु 'एतेन गृपिच्छाचार्यपर्यन्त मुनिसूत्रेण व्यभिचारिता निरस्ता' लिखकर तत्त्वार्थ सूत्रको गृदपिच्छाचार्य कृत बतलाया है। विद्या नन्दिके ही समकालीन श्रीवीरसेन स्वामीने तो अपनी धवला टीकामें स्पष्ट रूपसे तत्त्वार्थ सूत्रको गृपिच्छाचार्यकी कृति कहा है ।
इस सम्बन्धमें एक बात और भी उल्लेखनीय है । विक्रमको ग्यारहवीं शताब्दीके आचार्य श्री वादिराज सूरिने अपने पार्श्वनाथचरितके प्रारम्भमें गृढपिच्छ नामके आचार्य को सबसे प्रथम नमस्कार किया है । यथा ।
अतुच्छगुणसम्पातं गृद्धपिच्छे नतोऽस्मि तं ।।
पक्षीकुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणायोत्पतिष्णवः ।।१६।। अर्थात्-मैं महान गुणोंके आधार उन गृद्धपिच्छको नमस्कार करता हूँ, निर्वाणके लिये उड़नेके इच्छुक भव्य जीव जिनको अपना पंख बनाते हैं ।
__ इसमें यद्यपि गृद्धपिच्छको तत्त्वार्थसूत्रका कर्ता नहीं बतलाया। किन्तु तत्त्वार्थ सूत्रके प्रथम सूत्रमें ही 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' लिखकर मोक्षके मार्गका ही प्रधान रूपसे कथन किया गया है। अतः मोक्षार्थियोंके द्वारा उनकी उस कृति को अपनाना स्वभाविक है। उसी का कथन साहित्यिक भाषामें उक्त श्लोकमें किया गया है । अतः विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दी तक दिगम्बर परम्परामें तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता गृद्धपिच्छ नामसे ख्यात थे। तथा वे बहुत प्राचीनी माने जाते थे; क्यों कि वादिदेवने पूज्यपाद देवनन्दि और समन्तभद्रसे भ पहले उनका स्मरण किया है।
उक्त कालके पश्चात् विक्रमकी बारहवीं तेरहवीं शताब्दीके शिलालेखोंमें हम गृद्धपिच्छ नामके दो आचार्योका उल्लेख पाते हैं। उनमेंसे एक है कुन्द-कुन्द
और दूसरे हैं उमास्वाति । किन्तु उनमेंसे तत्त्वार्थ सूत्रका कर्ता गृद्ध पिच्छाचार्य१. विद्यानन्दिकी आप्त परीक्षाकी स्वोपज्ञवृत्तिमें 'तत्त्वार्थसूत्रकारै उमास्वामि
प्रभृतिभिः' पाठ भी (वा० ११९) सनातन जैनग्रन्थ माला काशीसे मुद्रित प्रतिमें मिलता है। किन्तु लिखित अनेक प्रतियोंमें यह पाठ नहीं पाया जाता । इसकी चर्चाके लिये देखें-अनेकान्त, वर्ष १, पृ० ४०६ । 'तह गिद्धपिच्छाइरियप्पयासिद त चत्थसूत्ते वि 'वर्तनापरिणामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य' इति दम्वकालो परूविदो --षट्खं०, पु० ४, पृ० ३१६ ।