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________________ २३० : जैनसाहित्यका इतिहास इदमुन्च गरवाचकेन सत्वानुकम्पया दृब्धम् । तत्त्वार्थाधिगमाख्यं स्पष्ट मुमास्वातिना शास्त्रम् ॥५॥ अर्थात्-जो वाचक मुख्य शिव श्रीके प्रशिष्य, ग्यारह अंगधारी घोषनन्दि क्षमणके शिष्य और वाचनासे (विद्या ग्रहणकी दृष्टिसे) महावाचक क्षमण मुण्डपाद के प्रशिष्य तथा 'मूल' नामके वाचकाचार्यके शिष्य थे, जिनका जन्म न्यग्रोधिकामें हुआ था, जो उच्चनागर शाखाके थे और श्रेष्ठनगर कुसुम पुरमें विहार करते थे, उन उमास्वातिने गुरुपरम्परासे प्राप्त अर्हद् वचनोंको भले प्रकार अवधारण करके, लोगोंको दुःखोंसे पीड़ित और दुरागमोंसे हतबुद्धि देखकर, प्राणियोंकी अनुकम्पासे प्रेरित होकर यह तत्त्वार्था धिगम नामक स्पष्ट शास्त्र रचा अथवा तत्त्वार्याधिगमनामक रचे शास्त्रको स्पष्ट किया। ___ इस प्रशस्तिमें ग्रन्थकार उमास्वातिने अपने दीक्षा गुरु तथा दीक्षा प्रगुरुका नाम, दोक्षा गुरुकी योग्यता, विद्या गुरु तथा विद्या प्रगुरुका नाम, अपना गोत्र पिता तथा माताका नाम, जन्म स्थानका नाम, ग्रन्थ रचनाका स्थान नाम अपनी शाखा आदि सभी कुछ तो दे दिया है। फिर भी उनके विषयमें जैन परम्परामें जो तथोक्त भ्रान्ति फैलो वह आश्चर्य जनक है। और उससे अनेक प्रकारके सन्देहोंका उत्पन्न होना स्वाभाविक है। यह तथोक्त भ्रान्ति दिगम्बर परम्परामें तत्त्वार्थ सूत्रके कर्तृत्वको लेकर है। यद्यपि श्रवण वेलगोलाके उक्त शिला लेखोंमें जो प्रायः १२वीं शताब्दीके लगभगके हैं, गृद्धपिच्छरो युक्त उमास्वातिको तत्वार्थ सूत्रका वर्ता बीतलाया है तथापि उससे पूर्व के प्राचीन साहित्यमें तत्त्वार्थ सूत्रके कर्ताक रूपमें अथवा अन्य किसी रूपमें उमास्वातिका कोई उल्लेख नहीं मिलता। यद्यपि तत्त्वार्थ सूत्रको सर्वाधिक प्रतिष्ठा दिगम्बर परम्परामें प्राचीनकालसे पाई जाती है और सबसे प्राचीन टीका भी दिगम्बराचार्य पूज्यपादकी तत्त्वार्थ सूत्रपर उपलब्ध है तथापि सूत्रकारके नामका कोई निर्देश उसमें नहीं है । यहाँ यह बतला देना उचित होगा कि दिगम्बर परम्परामें तत्वार्थ सूत्रके उक्त स्चोपज्ञ भाष्य और उसकी अन्तिम प्रशस्तिका कोई निर्देश नहीं मिलता। श्रवणवेलगोलाके उक्त शिलालेखोंमें गृढापिच्छाचार्य उमास्वाति की तत्त्वार्थ सूत्रका कर्ता बतलाया है, यह हम ऊपर लिख आये है। किन्तु उससे पूर्वके साहित्यिक उल्लेखोंमें तत्त्वार्थ सूत्र कर्ताके रूपमें अथवा अन्य किसी रूपमें उमास्वातिका कोई नाम नहीं है। दिगम्बर परम्परामें तत्त्वार्थ सूत्रकी सबसे प्राचीन टीका पूज्यपादकी सर्वार्थ सिद्धि है। उसमें टीकाकारने न तो अपना ही नाम दिया है और न सूत्रकारका ही नाम दिया है। उसक
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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