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तत्त्वार्थविषयक मूल साहित्य : २२९
१. प्रशस्ति में उल्लिखित उन्चनागरी शाखा श्वेताम्बर पट्टावलीमें पाई जाती है ।
२. अमुक विषय सम्बन्धी मतभेद या विरोध बतलाते हुए भी कोई ऐसे प्राचीन या अर्वाचीन श्वेताम्बर आचार्य नहीं पाये जाते जिन्होंने दिगम्बराचार्योंकी तरह भाष्यको अमान्य किया हो ।
३. जिसे उमास्वातिकी कृति रूपसे माननेमें शंकाका अवकाश नहीं, जो पूर्वोक्त प्रकारसे भाष्य विरोधी (?) है, ऐसे प्रशम रति ग्रन्थमें मुनिके वस्त्र पात्रका व्यवस्थित निरूपण देखा जाता है, जिसे श्वेताम्बर परम्परा निर्विवाद रूपसे स्वीकार करती है ।
४. उमास्वातिके वाचक वंशका उल्लेख और उसी वंशमें होनेवाले अन्य आचार्योंका वर्णन श्वेताम्बर पट्टावत्रियों पन्नवणा और नन्दीकी स्थविरावलीमें पाया जाता है ।
इस तरह पण्डितजीने भाष्य, उसकी अन्तिम प्रशस्ति तथा प्रशमरतिके आधारपर उमास्वातिको श्वेताम्बर परम्पराका सिद्ध किया है और दिगम्बर परम्पराका होने का निषेध किया है । मूल सूत्रोंके आधारसे वह कोई ऐसे सबल प्रमाण उपस्थित नहीं कर सके जिनसे उनका रचयिता श्वेताम्बर परम्पराका ही सिद्ध होता हो । प्रत्युत सूत्रोंमें कई ऐसी बातें हैं जो श्वेताम्बर परम्पराके प्रतिकूल और दिगम्बर परम्पराके अनुकूल हैं । उनकी चर्चा आगे की जायेगी ।
किन्तु श्वेताम्बर परम्परामें तत्वार्थ सूत्रके कर्ताका नाम एक मात्र उमास्वाति ही पाया जाता है । श्वेताम्बर परम्परामें तत्त्वार्थसूत्रका जो मूल पाठ प्रचलित है उसपर एक भाष्य भी है जिसे स्वोपज्ञ माना जाता है । उसके अन्त में एक प्रशस्ति भी है जिसमें ग्रन्थकारने अपना पूर्ण परिचय दिया है । उसमें उसने अपना नाम उमास्वाति दिया है । वह प्रशस्ति इस प्रकार है
वाचकमुख्यस्य शिवश्रियः प्रकाशयशसः प्रशिष्येण । शिष्येण घोषनन्दिक्षमणस्यैकादशाङ्गविदः ॥ १ ॥ वाचनया च महावाचकक्षमणमुण्डपादशिष्यस्य । शिष्येण वाचकाचार्यमूलनाम्नः प्रथितकीर्तेः ॥२॥ न्यग्रोधिकाप्रसूतेन विहरता पुरवरे कुसुमनाम्नि । कोभीषणिना स्वातितनयेन वात्सीसुतेनाऽर्घ्यम् ॥३॥ अर्हद्वचनं गुरुक्रमेणागतं समुपधार्य । दुःखार्तं च दुरागमविहतमति लोकमवलोक्य ॥४॥