SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२८ : जैनसाहित्यका इतिहास उमास्वातिकी जगह 'उमास्वामी' यह नाम श्रुतसागरका निर्देश किया हुआ है क्योंकि आपने लिखा है कि विक्रमकी १६वीं शताब्दीसे पहलेका ऐसा कोई ग्रन्थ अथवा शिलालेख आदि अभीतक मेरे देखने में नहीं आया जिसमें तत्त्वार्थ सूत्रके कर्ताका नाम उमास्वामी लिखा हो । श्रुत सागरजीने अपनी तत्त्वार्थवृत्तिमें उमास्वामीकी स्वामिसंज्ञा क्यों थी, इसके सम्बन्ध नीतिसारके कुछ श्लोक उद्धृत किये हैं। उनमें एक श्लोक इस प्रकार है 'तत्त्वार्थसूत्र व्याख्याता स्वामीति परिपठ्यते' इसमें तत्त्वार्थ सूत्रके व्याख्याताको स्वामी कहा है। शायद इसीपरसे श्रुतसागरजीने तत्त्वार्थ सूत्रके कर्ताको उमास्वामी नाम देना उचित समझा हो; क्योंकि उमाके साथ स्वाति नामकी संगति नहीं बैठती। किन्तु श्वेताम्बर परम्परामें एक मात्र उमास्वाति नाम ही सर्वमान्य है। श्वेताम्बर परम्परामें तत्त्वार्थ सूत्रका जो पाठ प्रचलित है उसपर एक भाष्य भी है जिसे स्वोपज्ञ माना जाता है। उसकी अन्तिम प्रशस्तिमें भी ग्रन्थकारका नाम उमास्वाति दिया है और लिखा है कि स्वाति उनके पिताका नाम था। श्री पं० सुखलालजीने तत्त्वार्थसूत्रकी अपनी भूमिकामें यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि उमास्वाति दिगम्बर परम्पराके नहीं थे किन्तु श्वेताम्बर परम्पराके थे । 'उमास्वाति दिगम्बर परम्पराके नहीं थे' ऐसा निश्चय करनेके लिए उन्होंने नीचे लिखी दलीले दी हैं १. प्रशस्तिमें सूचितकी हुई उच्च नागर शाखा या नागर शाखाके दिगम्बर सम्प्रदायमें होनेका एक भी प्रमाण नहीं पाया जाता है। २. काल किसीके मतसे वास्तविक द्रव्य है, ऐसा सूत्र (५।३८) और उसके भाष्यका वर्णन दिगम्बर पक्ष (५।३९) के विरुद्ध है। केवलीमें (९।११) ग्यारह परीषह होनेकी सूत्र और भाष्यगत सीधी मान्यता एवं भाष्यगत वस्त्र-पात्रादिका स्पष्ट उल्लेख भी दिगम्बर परम्पराके विरुद्ध है। सिद्धोंमें लिंग द्वार और तीर्थद्वारका भाष्यगत वक्तव्य दिगम्बर परम्परासे उल्टा है । ३. भाष्यमें केवल ज्ञानके पश्चात् केवलोके दूसरा उपयोग मानने न माननेका जो मन्तव्य भेद (१।३१) है वह दिगम्बर ग्रन्थोंमें नहीं दिखाई देता । तथा उमास्वातिको श्वेताम्बर परम्पराका सिद्ध करनेके लिए पंडितजीने नीचे लिखी दलीलें दी हैं१. 'संसारिणां ग्रहणं पूर्व कृतं स्वामिना उमास्वामिना। स्वामीति संज्ञा कथम् ? उक्तं हि आचार्यादीनां लक्षणम्-'-त. वृ०, पृ० ८७ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy