SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थविययक मूल साहित्य : २२३ द्वारा अग्राह्य बतलाया है ॥२०-२९॥ इसी तरह आगे धर्मादिद्रव्योंका कथन किया है। आगे लिखा है कि केवल एक आत्मा ही उपादेय है जो कि कर्मजन्य गुणपर्यायोंसे भिन्न है। शेष सब हेय है ॥३८॥ उसी शुद्ध आत्माका वर्णन समयसार की ही तरह यहाँ भी किया गया है ॥३९-५०॥ आगे व्यवहार चारित्र और निश्चयचारित्रका कथन है। चारित्र-व्यवहार चारित्र में अहिंसा आदि पांच महाव्रतोंका, तथा पांच समितियों और तीन गुप्तियोंका वर्णन है ॥५६-६८। आगे दो गाथाओंसे निश्चयरूप तीन गुप्तियोंका वर्णन है । फिर पाँच गाथाओंसे (७१-७५)पंच परमेष्ठी (अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु) का स्वरूप बतलाया है। आगे निश्चय चारित्रका कथन है। सबसे प्रथम आत्माको सब परभावोंसे भिन्न चिन्तन करनेका उपदेश हैमैं मार्गणा, गुणस्थान, जीवस्थानरूप नहीं हूँ। न मैं उनका कर्ता, कारयिता या अनुमन्ता हूँ ॥ न मैं मनुष्य, देव, नारकी या तिर्यञ्चरूप हूँ। न उनका कर्ता, कारयिता या अनुमन्ता हूँ॥ न मैं बाल, वृद्ध या तरुण हूँ। और न उनका कर्ता, कारयिता या अनुमन्ता हूँ । न मैं राग, द्वेष या मोहरूप हूँ। न मैं उनका कर्ता कारयिता या अनुमन्ता हूँ॥ न मैं क्रोष, मान, माया या लोभ रूप हूँ। न मैं उनका कर्ता, कारियता या अनुमन्ता हूँ। इस प्रकारका भेद ज्ञान हो जानेपर जीव मध्यस्थ होकर चारित्रका लाभ करता है । उस चारित्रको दृढ़ करने के लिये प्रतिक्रमण आदि किये जाते हैं । अतः आगे आचार्यने प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित्त, कायोत्सर्ग, परमसमाधि, सामायिक, परम भक्ति इन छै आवश्यकोंका निश्चयनयसे स्वरूप बतलाया है। मूलाचारमें सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, बन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग, ये छ आवश्यक बतलायें हैं । दिगम्बर परम्पराके साहित्यमें ये ही छै आवश्यक प्रचलित है । श्वेताम्बर परम्परामें भी ये ही छै भेद मान्य हैं । इनमें आलोचना नहीं है। तथा परम भक्तिके स्थानमें स्तुति और बन्दना हैं । ..---. ...... ---- १. सामाइय चउवीसत्यय, वंदणयं पडिक्कमणं । पच्चक्खाणं च तहा कामओ सग्गो हवदि छट्टो ॥१५॥-मूलाचा०, अ०७।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy