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________________ २२२ : जैनसाहित्यका इतिहास __टीकाकारके अनुसार इसकी गाथा संख्या १८७ है। जिन्हें उन्होंने बारह श्रुत स्कन्धोंमें विभाजित किया है। उन श्रुत स्कन्धोंके नाम इस प्रकार है-जीव, अजीव, शुद्धभाव, व्यवहार चरित्र, निश्चय प्रतिक्रमण, निश्चय प्रत्याख्यान, निश्चय आलोचना, निश्चय प्रायश्चित, परम समाधि, परम भक्ति, निश्चय आवश्यक, शुद्धोपयोग । जैसे कुन्दकुन्दाचार्यने समयसारकी प्रथम गाथामें सिद्धोंको नमस्कार करके समय पाहुड़को कहनेकी प्रतिज्ञा की है, वैसे ही नियमसारकी प्रथम गाथामें वीर जिनको नमस्कार करके नियमसारको कहनेकी प्रतिज्ञा की है । उधर समयसारको श्रु तकेवलीभणित कहा है, इधर नियमसारको केवली और श्रु तकेवलीके द्वारा भणित कहा है। आगे गाथा २, ३, ४ में कहा है कि जिन शासनमें मार्ग और मार्गके फलका कथन किया है । मोक्षके उपायको मार्ग कहते हैं और उसका फल निर्वाण है ॥ २ ॥ तथा नियमपूर्वक जो किया जाये उसे नियम कहते हैं। वह नियम हैसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र, मोक्षके उपायको नियम कहते हैं और उसका फल है परमनिर्वाण । इन तीनोंका ही कथन इस ग्रन्थमें है । अतः इसका नाम नियमसार है । सम्यग्दर्शन सबसे प्रथम सम्यग्दर्शनका वर्णन करते हुए अर्थ, आगम और तत्त्वोंके श्रद्धानको सम्यक्दर्शन कहा है। तथा क्षुधा तृषा आदि दोषोंसे रहित परमात्माको आप्त कहा है। और उनके मुखसे निकले हुए वचनोंको आगम तथा आगममें कहे हुए पदार्थोंको तत्त्वार्थ कहा है । वे तत्त्वार्थ है-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल, और आकाश । ( गा० ५-९) जीवका लक्षण उपयोग है। उपयोग दो प्रकारका होता है-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ज्ञानोपयोगके भी दो प्रकार हैं-स्वभाव ज्ञान और विभाव ज्ञान । जो ज्ञान इन्द्रियादिको सहायताके बिना होता है वह स्वभाव ज्ञान है। मतिज्ञान आदि विभावज्ञान हैं। दर्शनोपयोगके भी स्वभाव और विभावकी अपेक्षा दो भेद हैं । चक्षु, अचक्षु और अवधि दर्शन विभावरूप है। केवल दर्शन स्वभाव रूप है ॥ १०-१४ । पर्याय भी दो प्रकारको होती हैं-स्वभावपर्याय और विभावपर्याय । मनुष्य, नारको, तिर्यञ्च और देव पर्याय विभाव पर्याय है। कोपाधि निरपेक्ष पर्यायोंको स्वभाव पर्याय कहते हैं ॥१५॥ पुद्गल द्रव्यके वर्णनमें स्कन्धके छ भेद बतलाये हैं-अतिस्थूल, स्थूल, स्थूलसूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म और अति सूक्ष्म । परमाणुको अविभागी और इन्द्रिय
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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