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________________ तत्त्वार्थविषयक मूल साहित्य : २२१ मैं शरीर है, न मन हूँ, न बचन हूँ, न उनका कारण हूँ, न उनका कर्ता हूँ, न कारयिता हूँ और न अनुमन्ता हूँ ॥ ६८॥ शरीर, मन, वचन पुद्गलद्रव्यरूप हैं। और पुद्गलद्रव्य परमाणुओंका पिण्ड है ॥ ६९ ॥ ___फिर परमाणुका अन्य परमाणुके साथ कैसे बन्ध होता है इसका विवेचन है। परमाणुमें पाये जाने वाले स्निग्ध और रूक्ष गुण ही परमाणुको परमाणुके साथ बन्ध करानेमें कारण होते हैं। तब यह प्रश्न हुआ कि स्निग्ध और रूक्ष गुणके कारण एक परमाणुका दूसरे परमाणुके साथ बन्ध हो सकता है किन्तु आत्मा तो अमूर्तिक है उसके साथ पौद्गलिक कर्मोका बन्ध कैसे होता है ।।८१॥ तो उसके उत्तरमें कहा गया कि यद्यपि आत्मा रूपादि गुण नहीं हैं, किन्तु वह उन्हें जानता देखता है और जान देख कर उनसे राग द्वेष करता है, इस लिये कर्मोसे बद्ध होता है। इस तरह आगे बन्ध तत्त्वका उपयोगी विवेचन है जिसका निष्कर्ष यह है कि-'रागीके कर्मोका बन्ध होता है और विरागी कर्मबन्धन से छूट जाता है ॥ ८७ ॥ ___ आगे इसमें भी समयसारकी ही तरह आत्माको अपने भावोंका कर्ता और पौद्गलिक भावोंका अकर्ता बतलाया है ॥ ९२ ॥ तथा अन्तमें चूंकि शुद्ध नयसे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है अतः उसीको प्राप्त करनेका उपदेश किया गया है। तीसरे अधिकारमें श्रमणोंके आचारका वर्णन है। प्रारम्भमें ही श्रमण बननेके इच्छुक जनको क्या करना चाहिये और कैसे प्रव्रज्या लेनी चाहिये इसका कथन है । गाथा ८ में श्रमणोंके २८ मूल गुण बतलाये हैं । वे हैं-पांच महाव्रत, पांच समितियां, पांचों इन्द्रियोंका निरोध, केशोंका लोच, छ आवश्यक कर्म, अचेल, स्नान न करना, पृथ्वी पर सोना, दन्तधावन न करना, खड़े होकर भोजन करना और एक बार, दिनमें भोजन करना । श्वेताम्वरसाहित्यमें इन मूल गुणोंकी कोई चर्चा नहीं है। आगे श्रमणको कैसे रहना चाहिये, संयमका छेद होने पर कैसे उसका संधारण करना चाहिये, श्रमण किसे कहते हैं आदि सभी आवश्यक एवं उपयोगी बातोंका इसमें कथन है। ३. नियमसार नियमसार पर पमप्रभ मलधारी देवकी संस्कृत टीका है । उन्होंने इस ग्रन्थको कुन्दकुन्द रचित बतलाया है। साथ ही इसका विषय वर्णन तथा प्रतिपादन शैली कुन्दकुन्दके अन्य ग्रन्थोंसे बिल्कुल मेल खाती है । अतः इसके कुन्दकुन्द रचित होनेमॅरंच मात्र भी सन्देहको स्थान नहीं है ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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