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________________ २२० : जैनसाहित्यका इतिहास उनके द्वारा जो ज्ञान होता है उसे आत्माका प्रत्यक्ष ज्ञान कैसे कह सकते हैं।॥५६॥ जो परकी सहायतासे ज्ञान होता है उसे परोक्ष कहते हैं और जो केवल जीवके द्वारा जाना गया हो उसे प्रत्यक्ष कहते हैं ॥५८॥ ऐसा ज्ञान ही सुख रूप होता है ॥५९।। अतः केवल ज्ञान सुख स्वरूप है। इन्द्रिय जन्य सुख हेय है गाथा ६३ आदिसे इन्द्रिय जन्य सुखको हेय बतलाकर सुखको आत्माका ही गुण बतलाया है। लिखा है-इन्द्रियोंके द्वारा इष्ट विषयोंको प्राप्त करके यह आत्मा स्वयं ही सुख रूप परिणमन करता है ॥६५॥ और जब आत्मा स्वयं सुख रूप है तो विषय उसमें क्या कर सकते हैं ॥६७॥ जैसे सूर्य स्वभावसे ही तेजस्वी और उष्ण होता है उसी प्रकार सिद्ध परमेष्ठी भी ज्ञानस्वरूप और सुख स्वरूप होते हैं ॥६॥ आगे इन्द्रियसुख सम्पन्नोंमें सर्वोपरि देवताओंको भी दुःखी बतलाकर लिखा है जो सुख परकी सहायतासे प्राप्त होकर पुनः छूट जाता है, कर्मबन्धका कारण है, घटता बढ़ता रहता है, ऐसा इन्द्रियोंसे प्राप्त होने वाला सुख दुःख रूप ही है ॥७६॥ इस तरहका सुख शुभोपयोगसे प्राप्त होता है । अतः इन्द्रिय सुखके साधन शुभोपयोगको भी हेय बतलाकर शुद्धोपयोगके लिए ही यत्न करनेका उपदेश दिया है; क्योंकि शुद्धोपयोगके द्वारा ही मोहको नष्ट किया जा सकता है । दूसरे ज्ञेय तत्त्वाधिकारमें पञ्चास्तिकायकी तरह ही कतिपय विशेषताओंको लिये हुए द्रव्योंका कथन है। इसमें गाथा ८ से १२ तक उत्पाद व्यय और ध्रौव्यका वर्णन है। तीनोंका परस्परमें अविनाभाव बतलाकर उन्हें द्रव्यसे अभिन्न बतलाया है । तथा तीनोंको एकक्षणवर्ती बतलाया है। गाथा १३ दिसे सत्ता और द्रव्यमें गुणगुणी भाव बतलाकर सत्ताको द्रव्यसे अभिन्न बतलाया है । और इस तरह गुण-गुणी में वैशेषिकके द्वारा माने गये भेदका निरास किया है। गाथा २३ में सप्तभंगीका कथन है। इसमें पञ्चास्तिकायसे विशेषता यह है कि पञ्चास्तिकायमें अवक्तव्यको चतुर्थभंग बतलाया है । इसमें उसे तीसरा भंग बतलाया है। आगे चलकर इन दोनोंका उल्लेख विभिन्न दार्शनिक ग्रन्थोंमें मिलता है। गा० ३१ आदि में चेतनाके ज्ञान चेतना, कर्म चेतना और कर्मफल चेतना, ईन तीन भेदोंका तथा उनके स्वरूपका कथन है। इस तरह चौतीस गाथाओंके द्वारा द्रव्य सामान्यका वर्णन करके आगे द्रव्योंके छहों भेदोंका क्रमसे विशेष कथन किया गया है । फिर गाथा ५३ से जीवका विशेष कथन है । उसमें कहा है-'न
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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