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तत्त्वार्थविषयक मूल साहित्य : २१९ सकता है ॥२५॥ गीता' (९।४)में श्रीकृष्णने अपनेको सर्वजगतमें व्याप्त बतलाया है तथा सर्व भूतोंको अपने में स्थित बतलाया है। कुन्दकुन्दने जिनवर वृषभको ज्ञान रूपसे सर्वगत बतलाया है और जगतके सब पदार्थोंको विषय रूपसे जिनवर वृषभके ज्ञानगत बतलाया है ॥२६॥
किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि ज्ञान अर्थोके पास जाता है या अर्थ ज्ञानमें आ जाते हैं। जैसे चक्षु रूपसे आविष्ट नहीं होती और न रूप ही चक्षुमें प्रविष्ट होता है। फिर भी चक्षु रूपको जानती है। वैसे ही ज्ञानी न तो ज्ञेयोंसे आविष्ट होता है और न ज्ञेय ही ज्ञानमें प्रविष्ट होते हैं। फिर भी ज्ञानी विनाइन्द्रियोंकी सहायताके अशेष जगतको जानता है ॥२८-२९॥ जो जानता है वह ज्ञान है । ज्ञानके योगसे आत्मा ज्ञायक नहीं है (जैसा वैशेषिक मानते हैं) । आत्मा ही स्वयं ज्ञान रूप परिणमन करता है ॥३५॥ अतः जीव ही ज्ञान रूप है या ज्ञान जीव रूप है और ज्ञेय भूत, भविष्यत् और वर्तमानके भेदसे तीन प्रकार का है ॥३६॥ जितनी भूत और भावि पर्यायें हैं वे सब सर्वज्ञ के ज्ञानमें वर्तमानकी तरह प्रति भासित होती हैं ॥३७॥ यदि सर्वज्ञका ज्ञान अतीत और अनागत पर्यायोंको नहीं जानता तो कौन उसे दिव्य ज्ञान कहेगा ॥३९॥ जो ज्ञान सप्रदेशी, अप्रदेशी, मूर्त, अमूर्त, अतीत, अनागत आदि सबको जानता है उसी ज्ञानको अतीन्द्रिय कहते हैं ॥४१॥
इस तरहसे कुन्दकुन्दने सर्वज्ञताका बड़े विस्तारसे सयुक्तिक समर्थन किया है । और आगे जैन आगमोंके 'जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ', (आचाराग १-३-४-१२२) के अनुसार लिखा है 'जो त्रिलोक और त्रिकालवर्ती पदार्थोंको एक एक साथ नहीं जानता वह समस्त पर्याय विशिष्ट एक द्रव्य (आत्मा)को भी नहीं जान सकता ॥४८॥ तथा जो अनन्त पर्याय सहित एक द्रव्य (आत्मा)को नहीं जानता वह सब द्रव्योंको एक साथ कैसे जान सकता है ॥४९॥ जैन (जिनसम्बन्धी) ज्ञान त्रिकालवर्ती तथा त्रिलोकवर्ती नाना प्रकारके विचित्र पदार्थोंको एक साथ जानता है । अहो, ज्ञानका माहात्म्य अद्भुत है ॥५१॥
इन्द्रिय सुखका साधन इन्द्रिय ज्ञानको हेय बतलाते हुए लिखा-इन्द्रियोंके विषय स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द रूप पौद्गलिक द्रव्य हैं। इनको भी इन्द्रियां एक-एक करके जानती हैं ॥५६॥ फिर वे इन्द्रियां पर हैं आत्म रूप नहीं हैं। १. 'मया ततमिदं सर्व जगदव्यक्तमूर्तिना। मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं
तेष्ववस्थितः ॥४॥-गीता० अ० ९ । २. सव्वगदो जिणवसहो सव्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा । णाणमयादो य जिणो
विसयादो तस्स ते भणिया ॥२६॥-प्र० सा० ।