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२१८ : जैनसाहित्यका इतिहास कर्ता वर्द्धमानको, दूसरी गाथामें शेष तीर्थङ्करोंको, तीसरी गाथामें मनुष्यलोकमें वर्तमान अरहन्तोंको नमस्कार किया गया है । चौथी-पाँचवीं गाथामें कहा है कि अरहंतों, सिद्धों, गणधरों (आचार्यों), अध्यापक वर्गों (उपाध्यायों) और सब साधुओंको नमस्कार करके, उनके विशुद्ध दर्शन ज्ञान प्रधान आश्रमको प्राप्त करके मैं सम्यभावको धारण करता हूँ जिससे निर्वाणकी प्राप्ति होती है ।
इस तरह ग्रन्थकारने अपने व्याजसे सराग चारित्रमें स्थित श्रमणोंको बीतराग चरित्रमें स्थिर करनेके लिये इस ग्रन्थकी रचना की प्रतीत होती है। आगे गाथा ६ में कहा है कि दर्शन ज्ञान प्रधान चारित्रसे मोक्षकी प्राप्ति होती है। गाथा ७ में कहा है कि चारित्र धर्म है और धर्म साम्यभावका नाम है । तथा मोह और क्षोभ से रहित आत्माके परिणामको साम्य कहते हैं । अतः ग्रन्थकारने वीतराग चरित्ररूप साम्यभावको ही धर्म कहा है। वही उपादेय है।
गाथा ९ में जीवके भाव तीन प्रकारके बतलाये हैं-शुभ, अशुभ और शुद्ध । गाथा ११ में कहा है कि धर्माचरण करनेवाला आत्मा यदि शुद्ध भाव करता है तो उसे मोक्ष मिलता है और यदि शुभ भाव करता है तो उसे स्वर्ग प्राप्त होता है। और यदि अशुभ भाव करता है तो संसारमें दुःख उठाना पड़ता है ॥१२॥
शुद्धोपयोग और उसका फल-शुद्धोपयोगका फल उस अनुपम अनन्त अविनाशी सुखकी प्राप्ति है जो सुख विषयोंसे प्राप्त न होकर आत्मासे ही उत्पन्न होता है ॥१३॥ तथा वह शुद्धोपयोगी ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोहनीय कर्मोको नष्ट करके सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो जाता है ॥१५॥ उसे केवलज्ञानी कहते हैं । उसके शारीरिक सुख दुःख नहीं होते ॥२०॥ वह केवली विश्वके पदार्थीको हमलोगोंकी तरह क्रमसे नहीं जानते । अतः वह द्रव्योंकी सब पर्यायोंको प्रत्यक्ष जानते हैं ॥२१॥ कोई भी वस्तु उनसे अज्ञात नहीं रहती ॥२२॥
इसका कारण उन्होंने यह बतलाया है कि आत्मा ज्ञान स्वरूप है। उपनिषद् वगैरहमें आत्माको सर्वगत (व्यापक) कहा है । कुन्दकुन्दने भी उसे ज्ञानरूपसे व्यापक बतलाते हुए लिखा है-आत्मा ज्ञान के बराबर है और ज्ञान ज्ञेयोंके बराबर है। ज्ञेय समस्त लोकालोक है । अतः ज्ञान सर्वगत है ।।२३॥ जो आत्माको ज्ञान प्रमाण नहीं मानते उसके मतसे आत्मा ज्ञानसे या तो बड़ा हुआ या छोटा हुआ ॥२४॥
यदि आत्मा ज्ञानसे छोटा है तो आत्माके बिना अचेतन ज्ञान पदार्थोंको कैसे जान सकता है । यदि आत्मा ज्ञानसे बड़ा है तो ज्ञानके बिना आत्मा कैसे जान