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तत्त्वार्थविषयक मूल साहित्य : २१७ इस तरह नौ पदार्थोका स्वरूप बतलाकर मोक्षके मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रका कथन किया है।
धर्म आदिका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। अंगों और पूर्वोको जानना सम्यग्ज्ञान है । तपस्या करना सम्यक्चारित्र है। ये तीनों व्यवहार रूप मोक्षमार्ग हैं ॥१६०॥ और निश्च यनयसे उन तीनोंसे समाहित आत्मा ही मोक्षका मार्ग है ॥१६१॥ आगे लिखा है-यदि कोई ज्ञानी अज्ञानवश ऐसा मानता है कि अहंतादिकी भक्तिसे मोक्ष होता है तो वह परसमयरत है ॥१६५॥ क्योंकि अरहंतादिकी भक्तिसे पुण्य कर्मका बन्ध होता है, कोका क्षय नहीं होता ॥१६६॥ जिसके चित्तमें परवस्तुके प्रति अणुमात्र भी राग है वह समस्त आगमोंका ज्ञाता होनेपर भी आत्माके यथार्थ स्वरूपको नहीं जानता ॥१६७॥ अतः मुमुक्षुको निःसंग होकर और ममत्त्वको त्यागकर सिद्धोंकी भक्ति करना चाहिये । उसीसे निर्वाणकी प्राप्ति होती है ॥१६९॥ २. प्रवचनसार
पञ्चास्तिकायकी तरह प्रवचनसारके भी दो मूल पाये जाते हैं। एक अमृतचन्द्रकी टीकाके साथ पाया जाता है और एक जयसेनाचार्यकी टीकाके साथ पाया जाता है। अमृतचन्द्र के अनुसार प्रवचनसार तीन श्रुतस्कन्धोंमें विभाजित है। प्रथममें ज्ञानतत्त्वका, दूसरे में ज्ञेय तत्त्वका और तीसरेमें चरण तत्त्वका विवेचन है। तथा तीनोंमें क्रमसे ९२, १०८ और ७५ गाथाएं हैं। इस तरह अमृतचन्द्रके अनुसार प्रवचनसारकी गाथा संख्या २७५ है ।
जयसेनने भी अमृतचन्द्रके द्वारा अपनाये गये तीन विभागोंको स्वीकार करते हुए उन्हें महाधिकार संज्ञा दी है। किन्तु उनमें गाथा संख्या क्रमसे १०१, ११३ और ९७ है। इस तरह जयसेनके अनुसार प्रवचनसारकी गाथा संख्या
- ग्रन्थके तीन विभाग कुन्दकुन्द द्वारा किये गये हो सकते है। अन्तके तीसरे विभागके आदिमें जिनेन्द्र ऋषभदेवको नमस्कार किये जानेसे उस विभागका पृथक्त्व स्पष्ट ही है। दूसरे विभागके आदिमें जयसेनवाले पाठमें नमस्कारात्मक गाथा है वह गाथा अमृतचन्द्राचार्यवाले पाठमें नहीं है। फिर भी विषयकी दृष्टिसे दोनोंका पृथक्त्व व्यक्त होता है । - यद्यपि अन्तिम गाथामें 'पवयणसार' नाम प्रकारान्तरसे दिया गया है किन्तु पञ्चास्तिकायकी तरह न तो इसमें स्पष्ट रूपसे ग्रन्थका नामोल्लेख ही किया गया है और न उसके रचनेकी प्रेरणा आदिका ही कोई निर्देश किया गया है ।
इस ग्रन्थका प्रारम्भ गाथा पंचकसे होता है। प्रथम गाथामें धर्मतीर्थके