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________________ २१६ : जेनसाहित्यका इतिहास गन्ध, रूप और शब्दको जानते हैं इसलिये वे पञ्चन्द्रिय हैं ॥११७॥ आगे लिखा है-इन्द्रियां जीव नहीं हैं, और न पृथिवी आदि रूप जो शरीर है वही जीव है। किन्तु उसमें जो जानने देखने वाला है वही जीव है ॥१२१॥ जीव सबको जानता देखता है, सुखकी इच्छा करता है, दुःख से डरता है । हित अथवा अहित करता है और उसका फल भोगता है ॥१२२॥ जो सुख दुखका अनुभव नहीं करता, न हितमें प्रवृत्ति करता है और न अहितसे डरता है, उसे श्रमण अजीव कहते हैं ॥१२५।। संसार चक्रका वर्णन करते हुए लिखा है-संसारी जीव राग द्वेष रूप परिणाम करता है। परिणामोंसे कर्मबन्ध होता है। कर्मका उदय होनेसे नरक आदि गतियोंमें जन्म लेना होता है। जन्म लेनेसे शरीर मिलता है। शरीरमें इन्द्रियां होती हैं। इन्द्रियोंसे वह विषयोंको भोगता है। उससे राग द्वेष होता है । इस तरह संसारका चक्र चला करता है ॥१२९-१३०॥ कर्म मूर्तिक हैं-चूंकि कर्मका फल सुख दुख विषयके द्वारा मिलता है और विषय मूर्तिक है। उस विषयको जीव मूर्तिक इन्द्रियोंके द्वारा भोगता है । अतः कर्म मूर्तिक हैं ।।१३३॥ पुण्यास्रव और पापासव-जिसके चित्तमें दया भाव है, कालिमा नहीं है, प्रशस्त राग हैं उसके पुण्यकर्मोका आस्रव होता है ।।१३५।। प्रमादी आचरण, कलुषता, विषयोंमें लोलुपता आदि होनेसे पाप कर्मका आस्रव होता है ॥१३९॥ संवर-इन्द्रिय, कषाय और संज्ञाओंका निग्रह करनेसे पापका आना रुक जाता है ॥१४१॥ जिस सुख दुखमें सम भाव रखने वाले भिक्षुके सब द्रव्योंमें राग द्वेष और मोह नहीं रहता, उसके न पुण्य कर्मका आस्रव होता है और न पाप कर्मका आस्रव होता है ॥१४२॥ निर्जरा-जो संवरको करके तपस्या करता है । आत्माको जानकर उसका ध्यान करता है उसके बहुतसे कर्मों की निर्जरा होती है ॥१४४-१४५।। बन्ध-यदि यह जीव कर्मके उदयसे होने वाले राग द्वेष रूप परिणामोंको करता है तो वह पौद्गलिक कर्मोसे बंधता है ॥१४७॥ योगके द्वारा जीव कोको ग्रहण करता है ओर योग मन बचन और कायसे होता है । तथा भावके निमित्तसे जीव कोका बंध करता है और वे भाव राग द्वेष और मोह रूप होते है ।।१४९।। मोक्ष-जब ज्ञानीके कर्मबन्धके कारण भूत राग द्वेष और मोहरूप भाव नहीं होते तो उसके कर्मोंका आस्रव नहीं होता। आस्रवके अभावमें कर्मका बन्ध नहीं होता । तब वह सर्वज्ञ सर्वदर्शी होकर अतीन्द्रिय सुखको भोगता है ।।१५४-१५१॥ इस तरह जो संवरसे युक्त होता है, सब कर्मोकी निर्जरा करता है वह वेदनीय, आयु नाम और गोत्र कर्मका भी अभाव करके मुक्त हो जाता है ॥१५३॥
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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