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________________ तत्त्वार्थविषयक मूल साहित्य : २१५ कारण आकाशके लोक और अलोक विभाग कायम है। किन्तु ये दोनों द्रव्य न तो स्वयं गतिशील हैं और न अन्य द्रव्योंकी गतिके प्रेरक हैं। इन दो द्रव्योंकी इस रूपमें मान्यता जैन दर्शनके सिवाय किसी अन्य दर्शनमें नहीं है। आकाश द्रव्य-जो सब जीवोंको सब पुद्गलोंको तथा अन्य सबको अवगाह देता है वह आकाश है ॥९०॥ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आदि द्रव्य तो केवल लोकमें ही पाये जाते हैं। किन्तु आकाश तो अनन्त है । वह लोकमें भी पाया जाता है और उससे बाहर भी पाया जाता है ॥९१॥ ९२ गा० से ९५ गाथा तक इस आशंकाका समाधान किया गया है कि गति और स्थितिका कारण यदि आकाश ही को माना जाये तो क्या हानि है ? इस आशंकाका समाधान इस आगमिक मान्यताके आधार पर किया गया है कि जीवका स्वभाव उर्ध्व गमन है और मुक्त जीव ऊपर जाकर लोकके अग्रभागमें रुक जाता है। लिखा है कि यदि आकाश गमन और स्थितिका कारण है तो सिद्ध जीव ऊपर जाकर लोकके अग्रभागमें ही क्यों ठहर जाते हैं ॥९२॥ चूंकि जिनेन्द्र देवने सिद्धों का स्थान ऊपर लोकके अग्रभागमें बतलाया है अतः आकाश यदि गति और स्थितिका कारण हो तो लोक आलोकका भेद नहीं रह सकता। आकाश, काल, जीव, धर्म अधर्म अमूर्तिक हैं, केवल पुद्गल मूर्तिक है । अकेला जीव द्रव्य चेतन है ॥९७॥ जीव और पुद्गल सक्रिय हैं, शेष द्रव्य निष्क्रिय हैं ॥९८॥ काल द्रव्य-गाथा १०० और १०१ में काल द्रव्यका स्वरूप बतलाया है। इस तरह प्रथम श्रुतस्कन्ध अथवा महाधिकारमें छै द्रव्योंका कथन है। दूसरेमें नौ पदार्थोंका कथन है। वे नौ पदार्थ है-जीव अजीव, पुण्य पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष । गाथा १०९ से १२३ तक जीवके भेद प्रभेदोंका कथन है । मूल भेद दो हैसंसारी और मुक्त । संसारी सशरीर होते हैं और मुक्त अशरीर होते हैं ॥१०९॥ संसारीके भी दो भेद हैं स्थावर और त्रस । स्थावर जीवोंके पांच भेद हैंपृथिवी कायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक । इन सबके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है। इसलिये ये सब एकेन्द्रिय होते हैं ॥११२॥ शंख, सीप, लट वगैरह जीव दो इन्द्रिय होते हैं क्योंकि वे स्पर्श और रसको ही जानते हैं ॥११४॥ विच्छु, चींटी, जूं, खटमल वगैरह जीव स्पर्श, रस और गन्धको जानते हैं इसलिये वे तीन इन्द्रियवाले होते हैं ॥११५।। डांस, मच्छर, मक्खी, भौरा, आदि स्पर्श, रस, गन्ध, और रूप को जानते हैं इसलिये वे सब चौइन्द्रिय हैं ॥११६॥ मनुष्य, देव, नारकी, पशु, पक्षी, वगैरह स्पर्श, रस,
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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