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________________ २१४ : जेनसाहित्यका इतिहास सिवाय किसीका भी कर्ता नहीं है ॥५९॥ इसका उत्तर दिया गया-जीवके औदयिक आदि भाव कर्मोके निमित्तसे होते हैं । और कर्म जीवके भावोंके निमित्तसे होते हैं । किन्तु परमार्थसे न तो कर्म जीवके भावोंका कर्ता है और न जीवके भाव पौद्गलिक कर्मोके कर्ता है ॥६०॥ कर्म अपने कर्ता स्वयं है और जीव भी अपने भावोंका स्वयं कर्ता है ।।६२॥ तब पुनः प्रश्न हुआ कि यदि कर्म कर्मका कर्ता है और जीव अपने भावोंका कर्ता है तो कर्मके किये हुए कर्मोका फल जीव क्यों भोगता है और कर्म अपना फल कैसे देता है ॥६३॥ इस के उत्तरमें कहा गया है कि यह लोक पुद्गलोंसे खचाखच भरा हुआ है ॥६४॥ उसके बीचमें रहनेवाला जीव अपने भावोंको करता है और उसके भावोंका निमित्त पाकर पौद्गलिककर्म स्वभावसे ही जीवके कर्मरूप हो कर उससे बँध जाते हैं ॥६५॥ जब उनका विपाक काल आता है तो जीवको उनका फल भोगना पड़ता है ॥६७॥ अतः कर्म निश्चयसे केवल अपना कर्ता है और व्यवहारसे जीवके भावोंका कर्ता है । इसी तरह आत्मा भी निश्चयसे अपने भावोंका कर्ता है और व्यवहारसे कर्मोका कर्ता है। किन्तु भोक्ता तो अकेला जीव ही है क्योंकि वह चेतन है ॥६८॥ पुद्गल-गाथा ७४ से ८२ तक पुद्गल द्रव्यका कथन किया गया है। गाथा ७६ में पुद्गलके छ भेद बतलाये हैं। किन्तु उन छ भेदोंको बतलानेवाली गाथा जयसेनकी टीकामें तो है किन्तु अमृत चन्द्रकी टीकामें नहीं है । गाथा ७७, ७८, ८० और ८१ के द्वारा परमाणुका स्वरूप बतलाया है। 'सब स्कन्धोंका जो अन्त है वही परमाणु है । वह परमाणु शाश्वत है, अशब्द रूप है, एक और अविभागी है तथा मूर्तिक है ॥७७॥ वह परमाणु पृथ्वी, जल अग्नि और वायुका कारण है अर्थात् एक जातीय परमाणुसे ही चारो उत्पन्न होते हैं, परिणमनकी विचित्रताके कारण किसीमें कोई गुण व्यक्त होता है तो किसीमें अव्यक्त ॥७८॥ उसमें एक रस, एक रूप, एक गंध और दो स्पर्श रहते हैं। उसीसे शब्दकी निष्पत्ति होती है । अर्थात् शब्द पोद्गलिक है ।।८१।। अन्तमें लिखा है-'इन्द्रियोंके द्वारा जो कुछ भोगनेमें आता है, तथा इन्द्रिय, शरीर, मन, कर्म आदि जो भी मूर्तिक पदार्थ हैं वे सब पुद्गल हैं ॥८२॥ धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य-गाथा ८३ से ८९ तक धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्यका स्वरूप बतलाया है। इन दोनों द्रव्योंमें न रस है, न रूप है, न वर्ण है, न गन्ध है और न स्पर्श है । दोनों समस्त लोकमें व्याप्त हैं । नित्य हैं । धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलोंकी गतिमें वैसे ही निमित्त है जैसे मछलियोंके लिये जल । और अधर्मद्रव्य उनके ठहरनेमें वैसा ही निमित्त है जैसे पृथ्वी। उन दोनोंके सद्भावसे ही जीवों और पुद्गलोंकी गति और स्थिति होती है। और उन्हींके
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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