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________________ तत्त्वार्थविषयक मूलसाहित्य : २१३ को छोड़कर देव हो जाता है। यहाँ जीवत्वका न तो उत्पाद होता है और न विनाश ॥ १७ ॥ किन्तु उस जीवकी मनुष्य पर्याय नष्ट होती है और देवपर्याय उत्पन्न होती है ॥ १८ ॥ इस तरह सत् जीवका न विनाश होता है और न उत्पाद ॥ १९ ॥ इस तरह द्रव्योंका सामान्य कथन करके आगे उनका विशेष कथन किया है। जीव-गा० २७में जीवको चेतयिता, उपयोगवाला, प्रभु, कर्ता, भोक्ता, शरीर प्रमाण, आकार वाला, मूर्त और कर्म संयुक्त बतलाया है और गा० २८-२९ में लिखा है कि वह जीव कर्म मलसे मुक्त होकर लोकके अन्तमें जाकर विराजमान हो जाता है और सर्वज्ञ सर्वदर्शी होकर अतीन्द्रिय अनन्त सुखको भोगतां है । गाथा ३० से गाथा २७ में कहे हुए जीवत्व, चेतयिता आदि जोवकी विशेषताओंका व्याख्यान प्रारम्भ किया गया है। उनसे जीवके सम्बन्ध में जैन सम्मत सभी विशेषताओंका परिज्ञान हो जाता है। उसीमें जीवके उपयोग-ज्ञान दर्शन गुणों का व्याख्यान करते हुए गाथा ४४ से ५२ तक द्रव्यसे गुणोंके भेदाभेदका सयुक्तिक प्रतिपादन किया गया है। लिखा है-यदि द्रव्य गुणोंसे भिन्न है और गुण द्रव्यसे भिन्न है तो द्रव्य अनन्त हो जायेंगे और द्रव्यका अभाव हो जायेगा ॥४४॥ द्रव्य और गुणोंमें अनन्यत्व है, अन्यत्व और विभक्तत्व नहीं है ॥४५॥ जैसे धनके योगसे धनी होता है वैसे ज्ञानके योगसे ज्ञानी नहीं होता ॥४७॥ यदि ज्ञानीसे ज्ञानको भिन्न माना जायेगा तो दोनों जड़ हो जायेंगे ॥४८॥ शायद कहा जाय कि ज्ञान गुणके साथ समवाय सम्बन्ध होनेसे जीव ज्ञानी कहा जाता है। किन्तु ऐसा माननेसे जीव स्वभावसे अज्ञानी ठहरता है ॥४९॥ दूसरी बात यह है कि द्रव्य और गुणोंका अस्तित्व एक होनेके कारण उनमें जो सहवर्तीपना है वही तो समवाय है। समवाय नामका कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है । अतः द्रव्य और गुणोंमें स्वभावसे अयुतसिद्धि बतलाई है ॥५०॥ पहले गाथा १५ में द्रव्य दृष्टिसे कहा था कि भावका विनाश नहीं होता और अभाव का उत्पाद नहीं होता। गा० ५४ में पर्याय दृष्टिसे कहा है कि इस तरह सत् जीवका विनाश होता है और असत्की उत्पत्ति होती है। ये दोनों कथन परस्पर में विरुद्ध प्रतीत होते हुए भी अविरुद्ध हैं क्योंकि दोनों कथन दो विभिन्न दृष्टियों से किये गये हैं। कतत्व-५७ से जीवके कर्तृत्व गुणका कथन प्रारम्भ होता है । गाथा ५८ में कहा है कि कर्मके विना जीवके औदयिक औपशमिक आदि भाव नहीं होते। अतः ये भाव कर्मकृत हैं। इसपर शंकाकी गई कि यदि जीवके औदयिक आदि भाव कर्मकृत हैं तो जीव कोका कर्ता ठहरता है । किन्तु जीव तो अपने भावोंके
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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