SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२४ : जैनसाहित्यका इतिहास इस तरह मूलाचारमें नियमसारसे अन्तर पाया जाता है। किन्तु आवश्यक' नियुक्ति' पदका व्याख्यान करनेवाली गाथा दोनोंमें एक ही है। संभव है वह गाथा प्राचीन हो और दोनों ग्रन्थकारोंने उसे किसी प्राचीन परम्परासे ग्रहण किया हो। 'आवश्यक' शब्दकी जो व्युत्पत्ति नियमसार तथा मूलाचारमें दी है वह श्वेताम्बरसाहित्यमें नहीं मिलती। वहां आवश्यकका प्रचलित अर्थ ही पाया जाता है जिसका करना जरूरी हो। किन्तु उक्त दोनों ग्रन्थोंमें जो अन्यके बशमें नहीं है वह 'अवश' है और उसका जो कर्म है वह आवश्यक है। अर्थात् आत्माधीन व्यक्तिके करणीय कर्मको आवश्यक कहते हैं।' यह अर्थ बहुत ही उपयुक्त है । श्वेताम्बर साहित्यमें निश्चयदृष्टिका कथन न होनेसे शायद वहाँ यह लक्षण नहीं पाया जाता । अस्तु । __ प्रतिक्रमणसम्बन्धी पाठोंको आचार्यने वचनमय प्रतिक्रमण कहा है और उनके पाठको स्वाध्याय कहा है ॥१५३।। और कहा है कि यदि शक्ति हो तो ध्यानमय ही प्रतिक्रमणादि करना चाहिये। यदि शक्ति न हो तो उसका श्रद्धान ही करना चाहिये। केवल ज्ञान और केवल दर्शन-नियमसारके अन्तमें गाथा १५८ से आचार्य कुन्दकुन्दने केवल ज्ञान और केवल दर्शनके सम्बन्धमें महत्त्वपूर्ण चर्चा आरम्भ की है। लिखा है-व्यवहारनयसे केवली भगवान सबको जानते देखते हैं । किन्तु निश्चयनयसे केवल ज्ञानी आत्माको जानते देखते हैं ॥१५८॥ जैसे सूर्यमें प्रकाश और प्रताप एक साथ रहते हैं वैसे ही केवल ज्ञानीमें ज्ञान और दर्शन एक साथ रहते हैं ॥१५९॥ आगममें ज्ञानको पर प्रकाशक, दर्शनको स्व प्रकाशक तथा आत्माको स्वपर प्रकाशक माना है । कुन्दकुन्द स्वामीने इसकी चर्चा करते हुए कहा है कि यदि ऐसा मानते हो तो ज्ञानसे दर्शन भिन्न ठहरता है क्योंकि आगममें दर्शनको पर प्रकाशक नहीं कहा है ॥१६१। इसी तरह आत्माको पर प्रकाशक माननेसे भी १. 'ण वसो अवसो अवसस्स कम्म आवस्सयंति बोषव्वा । जुत्तित्ति उवाप्रति य हिरवयवो होदि णिज्जुत्ति ॥-नि०. सा० १२२ गा० । मूला चा०-७१४ । २. आवस्सयं अवस्सकरणिज्जं धुव निग्गहो विसोही य । अज्झयणछक्क वग्गो नाओ आराहणा मग्गो ॥८७२॥ समणेण सावएण य अवस्सकायत्रयं हवइ जम्हा । अंतो अहो निसिस्स उ तह्मा आवस्सय नाम ॥८७३॥-विशे० भा० ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy