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तत्त्वार्थविषयक मूल साहित्य : २११ गया है । उन दोनोंमें तो उन ग्रन्थोंके अभ्याससे होनेवाले फलको बतलाया है। हाँ, नियमसारके अन्तमें प्रवचनभक्तिवश उसकी रचना करनेका निर्देश अवश्य है। किन्तु 'मार्गप्रभावना'की बात उसमें भी नहीं है । शायद ग्रन्थकारके उदार धर्मप्रेमी चित्तमें मार्गप्रभावनाके लिए ग्रन्थरचना करनेके प्रथम विचारके उद्गमके फलस्वरूप ही यह ग्रन्थ रचा गया हो।
ग्रन्थका रूप-कुन्दकुन्दके अन्य ग्रन्थोंकी तरह यह ग्रन्थ भी प्राकृत गाथाओंमें निबद्ध है । उसके दो रूप हैं। एक रूप अमृतचन्द्रकी संस्कृत टीकाके साथ पाया जाता है। उसकी गाथा संख्या १७३ है। दूसरा रूप जयसेनकी टीकाके साथ पाया जाता है उसकी गाथा संख्या १८१ है । अमृतचन्द्रने ग्रन्थको चार भागोंमें विभाजित किया है। प्रारम्भ में एक पीठिका है, अन्तमें एक चलिका है और दोनोंके बीच दो श्रुतस्कन्ध हैं । जयसेनने भी इस विभागको ज्योंका-त्यों स्वीकार कर लिया है। अन्तर केवल इतना है कि उन्होंने दोनों श्रुतस्कन्धोंको श्रुतस्कन्ध नाम न देकर महाधिकार नाम दिया है । पीठिकाकी गाथा संख्या दोनोंमें २६ है। किन्तु प्रथम श्रुतस्कन्धकी गाथा संख्या ७८ है जबकि प्रथम महाधिकारकी गाथा संख्या ८५ है । इस तरह ७ गाथाएँ अधिक है। इनमें से छै गाथाएँ मति श्रुत आदि ज्ञानोंके वर्णनसे सम्बद्ध हैं और एक गाथा पुद्गलके पृथ्वी आदि भेदोंसे सम्बद्ध है। दूसरे श्रुतस्कन्धमें ४९ गाथाएँ हैं, किन्तु दूसरे महाधिकारमें ५० गाथाएँ हैं । चूलिकाकी गाथा संख्या दोनोंमें बीस ही है। इस तरह अमृतचन्द्रसे जयसेनाचार्य की टीकामें आठ गाथाएँ अधिक हैं।
जहाँतक ग्रन्थके विभागका प्रश्न है, प्रथम श्रुतस्कन्धको गाथा १०३ से तथा दूसरे थ तस्कन्धकी प्रथम गाथासे यह स्पष्ट है कि ये दोनों दो ग्रन्थों अथवा दो विभागोंके रूपमें रचे गये हैं। गाथा १०३ में कहा है कि इस प्रकार प्रवचनके सारभूत पञ्चास्तिकाय संग्रहको जानकर जो राग-द्वेषको छोड़ देता है वह दुखसे छुट जाता है। गाथा १०५ में कहा है-'महावीर स्वामीको नमस्कार करके उन पञ्चास्तिकाय सम्बन्धी पदार्थोके भेद तथा मोक्षके मार्गको कहूँगा।' अतः दो मूल विभाग कुन्दकुन्दकृत ही होने चाहिए। उनमें पीठिका और चूलिका नामक अवान्तर अधिकार अमृत चन्द्रकृत प्रतीत होते हैं ।
विषय-परिचय-प्रथम गाथाके द्वारा जिनोंको नमस्कार करके ग्रन्थकारने दूसरी गाथाके द्वारा 'समय' को कहनेकी प्रतिज्ञा की है । और तीसरी गाथाके द्वारा पाँचो द्रव्योंके समवायको समय तथा उसीको लोक कहा है और बाहरमें सब ओर फैले हुए अनन्त आकाशको अलोक कहा है। गाथा चारमें उन पांचोंका नाम बतलाया है-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश । और इन सबको