________________
जैन साहित्यका इतिहास
द्वितीय भाग
चतुर्थ अध्याय
तत्वार्थविषयक मूल साहित्य तत्त्वार्थ-विषयक साहित्यका पल्लवन अध्यात्म-विषयक साहित्यके समान आचार्य कुन्दकुन्दसे होता है। इन्होंने पंचास्तिकाय, प्रवचनसार और नियमसार जैसे ग्रन्थरल लिखकर इस साहित्यका विस्तार किया है। ___ आचार्य कुन्दकुन्दके पश्चात् तत्त्वार्थ-विषयक मूल साहित्यके प्रणेताओंमें आचार्य गृपिच्छका नाम आदरके साथ लिया जाता है। इन्होंने 'तत्त्वार्थसूत्र' जैसे गम्भीर ग्रन्थकी रचनाकर जैन-दर्शनका विविध दृष्टियोंसे सूत्ररूपमें निरूपण किया है। वास्तवमें यह ऐसा आकर-ग्रन्थ है जिसपर उत्तरकालमें इतना अधिक टीकादि साहित्य लिखा गया है, जिसे हम उपमाकी दृष्टिसे ग्रन्थागार कह सकते हैं । ___ इस अध्यायमें तत्त्वार्थ-विषयक मूल साहित्यका सर्वाङ्गीण विश्लेषण और विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है। १. पंचास्तिकाय
आचार्य कुन्दकुन्दने अपने ग्रन्थोंको किस क्रमसे रचा था, इसको जाननेका कोई निश्चित साधन नहीं है । तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने अपनी ग्रन्थत्रयीमें सर्वप्रथम पञ्चास्तिकाय रचा था; क्योंकि इसमें आधारभूत तत्त्वोंका संक्षेपमें कथन है । पश्चात् उन्हींके विशेष कथनके लिए प्रवचनसार और समयसार रचे होंगे।
उद्देश्य--पञ्चास्तिकायकी अन्तिम गाथामें ग्रन्थकारने उसकी रचनाका उद्देश्य भी बतलाया है कि प्रवचनकी भक्तिसे प्रेरित होकर मार्गकी प्रभावनाके लिए मैंने प्रवचनके सारभूत पञ्चास्तिकाय-संग्रह नामक सूत्रको कहा है।' इस तरहका कथन न समयसारके अन्तमें किया गया है और न प्रवचनसारके अन्तमें किया १. 'मग्गपभावणटुं पवयणभत्तिप्पचोदिदेण मया । भणियं पवयणसारं पंच
त्यिसंग्रहं सुत्तं ॥१७३॥