________________
अध्यात्म-विषयक टीका-साहित्य : २०९ मुषितत्वं यथा पान्थगतं पथ्युपचर्यते । तथा व्यवहरत्यज्ञे चिद्रूपे कर्मविक्रियाम् ॥३१॥
जोधेहिं कदे जुधे राएण कदंत्ति जप्पदे लोगो। तह ववहारेण कदं णाणावरणादि जीवेण ॥१०६॥ . पथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी । मुस्सदे एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई ॥५८॥ तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सि, वणं ।।
जीवस्स एस वण्णो जिणेहि ववहारदो उत्तो ॥५९॥ तीसरे अधिकारमें क्रियायोगकी आवश्यकता बतलाते हुए लिखा है जो क्रियाको छोड़कर ज्ञानमात्रके ही अहंकारमें लीन रहते हैं, वे ज्ञान और क्रियासे भ्रष्ट नास्तिक होते हैं ॥३८॥ किन्तु जो ज्ञान और क्रियामें समान आदरभाव रखते है वे मुक्त हो जाते हैं ॥४२॥ इसी तरह चौथे अध्यायमें साम्ययोगका कथन करते हुए कहा है जो योगी आत्मप्रवृत्तिमें सदा जागरूक रहता है और परप्रवृत्तिमें गंगा, बहरा और अन्धा बन जाता है. वही लोकोत्तर साम्यभावको प्राप्त करता है ॥२॥ विना साम्यभावके सामायिक केवल मायाचार है ॥८॥ साम्यभावको धारण करनेवाले अनेक महात्माओंके उदाहरण भी दिये हैं।
इस तरह उपाध्यायजीके उक्त दोनों ग्रन्थोंमें जैन-अध्यात्मका और उसके लिए उपयोगी बातोंका अच्छा चित्रण किया है। साथ ही तुलनात्मक रूपमें वेदान्त, सांख्य, आदि दर्शनोंके विचारोंकी यथास्थान समीक्षा की है। उनके इन ग्रन्थोंसे जैन-अध्यात्मविषयक साहित्यमें कुछ नवीनताका भी समावेश हुआ है। उनके पश्चात् संस्कृत-प्राकृतमें अध्यात्मविषयक कोई रचना हमारे देखनेमें नहीं बायी।
इस तरह आचार्य कुन्दकुन्दने जो अध्यात्मविषयक साहित्यके मुकुटमणि समयसारकी रचना की, अमृतचन्द्रने अपनी आत्मख्यातिके द्वारा उसमें चार चांद लगाये और अन्तमें उपाध्याय यशोविजयजीने उसके आवश्यक अंशोंको अपनाकर ग्रन्थरचना की।