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२०८ : जैनसाहित्यका इतिहास
उपाध्यायजीने इसका अनुवाद इस प्रकार दिया है
पाषंडिगणलिंगेषु गृहिलिगेषु ये रताः ।
न ते समयसारस्य ज्ञातारो बालबुद्धयः ॥१८१॥ इसीको आधार बनाकर उपाध्यायजीने आगे लिखा है-'जो भावलिंगमें रत हैं, वे गृहस्थ हों या मुनि, मुक्त हो जाते हैं ॥१८२॥ तथा दिगम्बरोंके नग्नताके आग्रहको कदाग्रह आदि बतलाया है। किन्तु कुन्दकुन्दाचार्यने उस गाथासे आगेकी ४१४वीं गाथामें कह दिया है कि व्यवहारनय मोक्षमार्गमें दोनों लिंगोको मान्य करता है, किन्तु निश्चयनय किसी भी लिंगको नहीं पसन्द करता।
अध्यात्मोपनिषद्-इसके प्रारम्भमें भी उपाध्यायजीने अध्यात्मका लक्षण कहा है-'आत्माको लेकर जो पांच आचारोंका पालन किया जाता है। उसे अध्यात्म कहते हैं ॥२॥ इस ग्रन्यमें केवल चार अधिकार हैं-१. शास्त्रयोगशुद्धि, २. ज्ञानयोगशुद्धि, ३. क्रिपायोगशुद्धि और ४. साम्ययोगशुद्धि ।
पहले अधिकारमें बतलाया है कि अतीन्द्रिय पदार्थों को जाननेका साधन शास्त्र है। और ऐसा शास्त्र सर्वज्ञ वीतराग-उपदिष्ट ही हो सकता है। अतः योगियोंको शास्त्रचक्षु होना चाहिए । यथा
चर्मचक्षुभृतः सर्वे देवाश्चावधिचक्षुषः ।
सर्वतश्चक्षुषः सिद्धाः योगिनः शास्त्रचक्षुषः ॥१६॥ यह श्लोक कुन्दकुन्दके प्रवचनसारको नीचे लिखी गाथाकी ही छाया है
आगम चक्खू साहू इंदियचक्खूणि सव्व भूदाणि ।
देवा य ओहि चक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू ॥३४॥ दूसरे अधिकारमें ज्ञानयोगकी शुद्धिका कथन है। लिखा है-जो अन्यसे भिन्न आत्माको चिन्मात्र लक्षणके द्वारा जानता है वही ज्ञान उत्तम है ।।१५।।
परमात्माके स्वरूपको शुद्धानुभवसंवेद्य बतलाकर समयसारकी ही तरह परमात्माको गुणस्थानों और मार्गणाओंसे अछूता बतलाया है तथा लिखा है कि जो कर्मोकी उपाधिसे होनेवाले भावोंको आत्माका मानता है वह परमात्माके स्वाभाविक रूपको नहीं जानता। ___ इस प्रकरणमें भी समयसारकी अनेक गाथाओंको संस्कृतमें अनूदित किया गया है
यथा भृत्यः कृतं युद्धं स्वामिन्येवोपचर्यते । शुद्धत्मन्यविवेकेन कर्मस्कन्धोजितं तथा ॥३०॥