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________________ अध्यात्म-विषयक टीका-साहित्य : २०७ है ॥५॥ आत्माको ज्ञानदर्शन और चारित्रलक्षणवाला कहा है ॥६॥ जैसे रत्नकी प्रभा रत्नसे भिन्न नहीं है वैसे ही आत्मासे ज्ञान दर्शन और चारित्र भिन्न नहीं है ॥७॥ व्यवहारनय लक्ष्य और लक्षणमें भेद मानता है, निश्चयनय नहीं ॥८॥ यह कथन समयसार गाथा ५ और ७ का ऋणी है। आगे लिखा हैव्यवहारी शरीर और आत्माको एक मानता है, किन्तु निश्चयको यह बात सह्य नहीं है। जैसे उष्ण अग्निके योगसे घृतमें उष्णताका भ्रम होता है वैसे मूर्त शरीरके योगसे आत्मामें मूर्तताका भ्रम होता है ॥३६॥ जिसमें न रूप है, न रस है, न गंध है, न स्पर्श है, न आकार है, वह कैसे मूर्त हो सकता है ॥३७॥ मूर्तता पुद्गलका गुण है और आत्मा ज्ञान गुणवाला है। अतः आत्मा पुद्गलोंसे भिन्न है ॥४८॥ इसी तरह आत्मा न पुण्य है और न पाप है। पुण्य पाप तो पौद्गलिक है ॥५९॥ लोग पुण्यकर्मको शुभ और पापको अशुभ कहते हैं। किन्तु जो जीवको संसारमें भटकाता है वह शुभ कैसे हुआ 'पुण्यं कर्म शुभं प्रोक्तमशुभं पापमु यते । तत्कथं तु शुभं जन्तून् यत् पातयति जन्मनि ॥१६॥' यह समयसारके पुण्यपाप द्वारकी प्रथम गाथाका ही रूपान्तर है कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं । किह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि ॥१४५।। इस अधिकारमें समयसारके अनुसार आत्माके स्वरूपका वर्णन करके भी उपाध्यायजीने दिगम्बरोंको बेलाग नहीं छोड़ा । बीचमें लिख ही दिया ये तु दिक्पटदेशीयाः शुद्धद्रव्यतयात्मनः । शुद्धस्वभावकर्तृत्वं जगुस्तेऽपूर्वबुद्धयः ।।८७॥ 'जो दिगम्बर शुद्धद्रव्यरूपसे आत्माको शुद्ध स्वभावका कर्ता मानते हैं उनकी बुद्धि अपूर्व है। क्योंकि सिद्धसेन दिवाकरने सन्मति नामक ग्रन्थमें द्रव्याथिकनयको शुबसंग्रहको विषय करनेवाला कहा है ॥८८॥ उनके मतसे आत्मा भावोंका कर्ता नहीं है, केवल कूटस्थ द्रष्टामात्र रहता है ।।८९॥ समयसारमें अन्तमें कुन्दकुन्दने कहा है कि जिनका लिंगमें ममत्व है वे समयसारको नहीं जानते । पाखंडिलिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु । कुन्वंति जे ममत्तं तेहिं ण णायं समयसारं ॥४१३॥
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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