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२०६ : जेनसाहित्यका इतिहास
अध्यात्मसार-इस ग्रन्थमें २० अधिकार हैं । उनके नाम है-माहात्म्याधिकार १, अध्यात्मस्वरूप २, दंभत्याग ३, भवस्वरूपचिन्ता ४, वैराग्यसंभव ५, वैराग्यभेद ६, वैराग्यविषय ७, ममतात्याग ८, समता ९, सदनुष्ठान १०, मनःशुद्धि ११, सम्यक्त्व १२, मिथ्यात्याग १३, असद्गृहत्याग १४, योग १५, ध्यान १६, ध्यानस्तुति १७, आत्मनिश्चय १८. जिनमतस्तुति १° और अनुभवाधिकार । सम्पूर्ण ग्रन्थ संस्कृतमें अनेक छन्दोंमें निर्मित है।
अध्यात्मका माहात्म्य बतलाते हुए लिखा है कि 'अध्यात्मशास्त्रसे उत्पन्न हुए सन्तोषके सुखमें मग्न पुरुष इन्द्र, कुबेर और राजाको कुछ नहीं समझते ॥१०॥ कामसेवनका रस तभी तक रहता हैं जबतक कामसेवन किया जाता है। भोजनका सुख भी भोजन करनेतक ही रहता है। किन्तु अध्यात्मशास्त्रका अनुशीलन करनेपर जो सुख प्राप्त होता है, उसकी कोई अवधि नहीं है ॥२१।। अतः अध्यात्मशास्त्रको बारंबार पढ़ना चाहिये और उसके अनुसार आचरण करना चाहिये तथा उसे सुपात्रको ही देना चाहिये ॥२४॥ __दूसरे अधिकारमें अध्यात्मका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है-'मोहके अधिकारसे छूटे हुए मनुष्य आत्माके आश्रयसे जो शुद्ध आचरण करते है उसे जिनदेवने अध्यात्म कहा है ॥२॥ जैसे सामायिक सब चारित्रोंमें अनुस्यूत रहता है वैसे ही अध्यात्म सब योगोंमें अनुगत माना गया है ॥३॥ शुद्ध ज्ञान और शुद्ध क्रिया ये दोनों अध्यात्मरूपी रथके चक्र हैं ॥१२॥ यह पञ्चमगुण स्थानसे लेकर माना गया है ॥१३॥ वैसे उपचारसे पहले भी रहता है ।। अशुद्ध भी क्रिया सदाशय होनेसे शूद्ध क्रियाकी हेतु होती है । जैसे रसायनके योगसे ताम्बा स्वर्ण हो जाता है ॥१६॥ अतः मार्गमें प्रवेश करानेके लिये मिथ्या दृष्टिमें भी द्रव्यसम्यक्त्वका आरोप करके व्रत देते हैं ॥१७॥ दंभत्याग आदि अधिकारोंमें अध्यात्मके लिए उपयोगी आचार और विचारोंका बड़ा ही सुन्दर और भावपूर्ण विवेचन किया है और सांख्यादि मतोंके विचारोंकी पर्यालोचना की है।
आत्मनिश्चय नामक अट्ठारहवें अधिकारमें समयसारमें दर्शित दिशाके द्वारा उसीके शब्दोंमें आत्मतत्त्वका विनिश्चय करते हुए सम पसारकी अनेक गाथाओंको संस्कृतरूप दिया है।
लिखा है-आत्मज्ञान ही मुक्तिदाता है, अतः सदा आत्मज्ञानके लिए ही प्रयत्न करना चाहिये ॥१॥ आत्माके जान लेनेपर जाननेके लिए कुछ भी बाकी नहीं रहता और उसको न जानकर बाकीका जानना निरर्थक है ॥३॥ आत्मको जाननेके लिये नवों तत्त्वोंको जानना चाहिए; क्योंकि अजीवादि तत्त्व आत्माके प्रतियोगी हैं ॥३॥ अतः एकत्व और पृथक्त्वसे युक्त आत्मज्ञान हो हितकर