________________
२०४ : जैनसाहित्यका इतिहास
1
थे । आगरेमें एक अर्थमल्ल नामके अध्यात्मरसिक सज्जनके साथ कविका परिचय हो गया । उनकी प्रेरणासे कविने कुन्दकुन्दाचार्यकृत समयसारकी रायमल्लकृत बालावबोध टीकाका मननपूर्वक स्वाध्याय किया । उसे पढ़कर उनकी व्यवहारपरसे श्रद्धा उठ गयी और उन्हें सर्वत्र निश्चयनय ही निश्चयनय दिखाई देने लगा । इसमें उनके साथी तीन मित्र और भी थे। उनके नाम थे चन्द्रभानु उदयकरण और थानमल । चारों कोठरीमें नंगे हो जाते थे और अपनेको दिगम्बर मुनि समझ लेते थे । वि० सं० १६९२ तक यही दशा रही ।
उसके पश्चात् आगरेमें पं० रूपचन्दका समागम हुआ । उन्होंने उनसे गोम्मटसार आदि ग्रन्थोंको पढ़नेकी प्रेरणा की । उनके पढ़नेसे कवि और उनके साथियोंकी परिणति स्याद्वादरूप हुई और एकान्तवादका लोप हो गया । तब १६८३ में समयसारपर अमृतचन्द्राचार्य रचित आत्मख्याति टीकामें आगत संस्कृत पद्योंके आधारपर 'समयसार नाटक' नामका हिन्दीपद्योंमें अपूर्व ग्रन्थ रचा । उसका प्रचार तथा आदर श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें खूब है ।
तबसे आगरेमें बनारसीदासजीके अनुयायियोंकी एक शैली प्रचलित हो गई जिसके अनुयायी आध्यात्मिक कहे जाते थे । उन्होंने लोगोंको अपनी ओर आकृष्ट किया । विपक्षियोंने उसे बनारसीदासका आध्यात्मिक मत नाम दे दिया ।
फलस्वरूप उसके बढ़ते हुए प्रभावको रोकनेके लिए श्वेताम्बराचार्य यशोविजय उपाध्यायने उसके खण्डनमें आध्यात्मिकमत-खण्डन और आध्यात्मिकमत'परीक्षा नामके ग्रन्थोंकी रचना की और मेघविजय उपाध्यायने प्राकृत गाथाओं में बाणारसीय दिगम्बरमत खण्डनमय युक्तिप्रबोध नामके ग्रन्थकी रचना की और उसपर संस्कृतमें टीका भी रची ।
श्री यशोविजयजी श्वेताम्बर तपागच्छके थे और अकबर बादशाह के प्रतिबोधक हीरविजय सूरिके शिष्य उपाध्याय कल्याणविजय उनके शिष्य लाभविजय उनके शिष्य जीतविजयके गुरुभाई नयविजयके शिष्य थे । इन्होंने तीन वर्ष तक काशीमें रहकर न्यायशास्त्रका अभ्यास किया था। पीछे चार वर्षतक आगरामें रहकर विद्याभ्यास किया था । इन्होंने प्राकृत, संस्कृत और गुजरातीमें अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है तथा न्याय, योग, अध्यात्म, दर्शन, धर्म, कथाचरित
१. आध्यात्मिक मत - परीक्षा (टीका सहित), देवचन्द लालचन्दभाई सूरतसे, प्रकाशित हुई है ।
२. युक्तिप्रबोध, ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर -संस्था, रतलाम से प्रकाशित हुआ है ।