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________________ अध्यात्म-विषयक टीका-साहित्य : २०३ आशापुरजीके सागार धर्मामृतका एक श्लोक इस प्रकार है 'भूरेखादिसदृक्कषायवशगो यो विश्वदृश्वाशया हेयं वैषयिकं सुखं निजमुपादेयं त्विति श्रद्धधत् । चौरो मारयितुं धृतस्तलवरेणेवाऽऽत्मनिन्दादिमान् शर्माक्षं भजते रुजत्यपि परं नोत्तप्यते सोऽप्यघः ॥१३॥ उक्त गद्य तथा पद्यमें जो शब्द तथा अर्थसादृश्य है वह अकस्मात् प्रतीत नहीं होता । अवश्य ही इन दोनों में से किसी एक ने दूसरेका अनुसरण किया है । पं० आशापरजीका समय तो सुनिश्चित है उन्होंने अपने सागारधर्मामृतकी टीका वि० सं० १२९६ में समाप्त की थी। अब यदि आशाधरजीने ब्रह्मदेवजी की टीकाको देखकर उक्त पद्य रचा है तो ब्रह्मदेवजी विक्रमकी तेरहवीं शतीके मध्यके विद्वान् होने चाहिए और इस तरह वे जयसेनजी और आशापुरजीके अन्तरालमें हुए हैं। किन्तु यदि ब्रह्मदेवजीने आशाधरजीके सागारधर्मामृतके उक्त पद्यके ऊपरसे सम्यग्दृष्टिका उक्त स्वरूप लिखा है तो वह आसाघरजीके पश्चात् विक्रमको चौदहवीं शताब्दीके पूर्वार्धमें होने चाहिए। डॉ०' उपाध्येने लिखा है कि जैसलमेरके भण्डारमें ब्रह्मदेवकी द्रव्यसंग्रह वृत्तिकी एक प्रति मौजूद है जो वि० सं० १४८५ में माण्डवमें लिखी गई है। अतः इतना निश्चित है कि ब्रह्मदेवजी उससे पहले हुए हैं। परमात्मप्रकाशपर कुक्कुटासन-मलधारी बालचन्द्रकी एक कन्नड़ टीका उपलब्ध है । डॉ०२ उपाध्येने लिखा है कि उसके प्रारम्भिक उपोद्घातसे यह स्पष्ट है कि उस टीकाका मुख्य आधार ब्रह्मदेवकी वृत्ति है। क्योंकि बालचन्द्रने लिखा है कि ब्रह्मदेवकी टीकामें जो विषय स्पष्ट नहीं हो सके हैं, उन्हें प्रकाशित करनेके लिये उन्होंने यह टीका रची है ।यह स्पष्टोक्ति बतलाती है कि उन्होंने ब्रह्मदेवका अनुसरण किया है । किन्तु इन बालचन्द्रका समय भी निश्चित नहीं हो सका है। अध्यात्मरसिक उपाध्याय यशोविजयजी श्वेताम्बर-परम्परामें निश्चयनय और व्यवहारनय तो मान्य हैं । किन्तु कुन्दकुन्दने समयसारमें जो निश्चयनयसे आत्मस्वरूपका प्रतिपादन किया है उस ढंगका प्रतिपादन श्वेताम्बर-साहित्यमें नहीं मिलता। इससे अध्यात्मरसिक श्वेताम्बर विद्वानोंका कुन्दकुन्दके समयसारकी ओर आकृष्ट होना स्वाभाविक है । ऐसे ही विद्वानोंमें पं० बनारसीदास थे। वह हिन्दीभाषाके श्रेष्ठ कवि थे। जैन-परम्परामें हिन्दीभाषाका उन जैसा श्रेष्ठ कवि दूसरा नहीं हुआ। उनका जन्म जौनपुरमें वि०सं० १६४३में हुआ था । किन्तु व्यापारके निमित्त वे आगरा आकर रहने लगे १. २. पर० प्र० की प्रस्ता०, पृ० ७१ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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