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२०२ : जेनसाहित्यका इतिहास नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ और भावार्थका कथन करनेका निर्देश किया है । तथा मंगलादिकी चर्चा में मंगल णिमित्त हेऊ आदि गाथा उद्धृत करके उसका व्याख्यान किया है। तदनुसार ही द्रव्यसंग्रहको टीकाके आरम्भमें ब्रह्मदेवजीने किया है। अन्य भी कई समानताएँ ऐसी हैं जिनमें शब्दशः अनुकरण किया गया है। अतः यह निश्चित है कि ब्रह्मदेवजीने जयसेनका पूरा-पूरा अनुकरण किया है। जयसेन ईसाकी बारहवीं शताब्दीके उत्तरार्धके लगभग हुए हैं, अतः ब्रह्मदेव बारहवीं शताब्दीसे बादके होने चाहिए।
किन्तु इस विषयमें एक प्रश्न हो सकता है कि ब्रह्मदेवजीने ही जयसेनाचार्यका अनुसरण किया है और जयसेनाचार्यने ब्रह्मदेवजीका अनुसरण नहीं किया, इसमें क्या प्रमाण है ? क्योंकि ब्रह्मदेवकी टीकामें जयसेनजी अथवा उनकी टीकाका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। __ दोनों टीकाओंके मिलानसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ब्रह्मदेवजीने ही जयसेनाचार्यका अनुसरण किया है। उदाहरणके लिए द्रव्यसंग्रह गाथा ५७ की टोकामें ब्रह्मदेवजीने पञ्चास्तिकाय गाथा १४६ तथा समयसार गाथा २१७ की जयसेनाचार्यकृत टीकाका अनुसरण करके दोनोंमें उद्धत पद्योंको अपने ढंगसे जमाया है। साथ ही एक उद्धरण भी पंचास्तिकायकी टीकाका पाया जाता है । अतः यह निश्चित है कि ब्रह्मदेवजीने जयसेन अनुसरण किया है।
द्रव्यसंग्रहकी गाथा १३ की टीकामें एक वाक्य इस प्रकार है
'स्वाभाविकानंतज्ञानाद्यनन्तगुणाधारभूतं निजपरमात्मतव्यमुपादेयम्, इन्द्रियसुखादिपरद्रव्यं हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणीत........"परं किन्तु भूमिरेखाविसदृशक्रोषाविद्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्तं तलवरगृहीततस्करववात्मनिन्दासहितः सन्निन्द्रियसुखमनुभवतीत्यविरतसम्यग्दृष्टेलक्षणम् । यः पूर्वोक्तप्रकारेण सम्यग्दृष्टिः सन् भूमिरेखादिसमानक्रोधादिद्वितीयकषायोदयाभावे सत्यभ्यन्तरे निश्चयनयेनकदेश-रागाविरहित-स्वाभाविक सुखानुभूतिलक्षणेस, बहिविषयेषु पुनरेकवेशहिसानतास्तेयाब्रह्मपरिग्रहनिवृत्ति लक्षणेषु वर्तते स पञ्चमगुणस्थानवति भावकः स्यात् ।' १. 'चारित्रसारादौ ग्रन्थे भणितमास्ते । छ मस्थतपोधनाः द्रव्यपरमाणु भाव
परमाणु वा ध्यात्वा केवलज्ञानमुत्पादयन्ति । तत्परद्रव्यालंबनरहितं कथं घटत इति । परिहारमाह-द्रव्यपरमाणुशब्देन द्रव्यसूक्ष्मत्वं ग्राह्य भावपरमाणुशब्देन च भावसूक्ष्मत्वं न च पुद्गलपरमाणवः । इदं व्याख्यानं सर्वार्थसिद्धिटिप्पणके भणितमास्ते ।'–पञ्चास्ति० टी०, पृ० २१९ ।। _ 'तथाचोक्तं पञ्चास्तिकाये-पर्यायाथिकनयेन, 'मभूदपुन्वो हवदि सिद्धों',
द्रव्याथिकनयेन पुनः ।'-पर० प्र० टी०, पृ० ६ तथा पञ्चास्ति० टी०, पृ० ४३।