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अध्यात्म-विषयक टीका-साहित्य : २०१ आगमार्थ और अन्तमें भावार्थ कहनेकी पद्धतिको स्वीकार किया है और प्रायः तदनुसार ही गाथाओंका व्याख्यान किया है ।
इन सब बातोंसे यह सिद्ध होता है कि दोनों टीकाओंके कर्ता ब्रह्मदेव जी ही हैं । यह बात इसलिए लिखनेकी आवश्यकता हुई कि परमात्मप्रकाशकी टीकामें टीकाकारका नाम नहीं है, किन्तु हिन्दी-टीकाकार दौलतरामजी परमात्मप्रकाशकी संस्कृतवृत्तिको ब्रह्मदेवरचित कहते हैं ।
परमात्मप्रकाशकी टीकाके अन्तमें ब्रह्मदेवजीने लिखा है-इस ग्रन्थमें अधिकतर पदोंकी सन्धि नहीं की गयी है और सुखपूर्वक बोध करानेके लिए वाक्य भी जुदेजदे रखे गये हैं । अतः विद्वानोंको इस ग्रन्थमें लिंग, वचन, क्रिया, कारक, संधि, समास, विशेष्य, विशेषण, वाक्यसमाप्ति आदि दूषण नहीं देखने चाहिए।'
इससे प्रतीत होता है कि ब्रह्मदेवजीने अपनी यह टीका सरल संस्कृतमें लिखी है जिससे साधारण ज्ञाता भी उसका लाभ उठा सके । बृ० द्रव्यसंग्रहकी टीकामें इस तरहकी कोई बात नहीं लिखी है, क्योंकि उसकी रचना इस दृष्टिसे नहीं की गयी है।
ब्रह्मदेवजीकी इन टीकाओंसे उनके सम्बन्धमें कुछ भी ज्ञात नहीं होता, अतः उनके समयका निश्चय करनेके लिए ग्रन्थमें उद्धृत ग्रन्थान्तरोंके पद्यों आदिका ही सहारा लेना पड़ता है।
ब्रह्मदेवजीमें भी ग्रन्थान्तरोंसे पद्य उद्धृत करनेकी अभिरुचि जयसेनाचार्यकी जैसी ही प्रतीत होती है। जयसेनकी पञ्चास्तिकाय-टीकाओंके साथ उनकी टीकाओंका मिलान करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने अपनी टीकाओंमें जयसेनका अनुकरण किया है । जयसेनाचार्यने' भी टीकाके आदिमें शब्दार्थ, १. 'एवं "शब्दार्थः कथितः । 'नयार्थोऽप्युक्तः । "मतार्थोऽप्युक्तः । इन्द्रशत
वन्दिता इत्यागमार्थः प्रसिद्ध एव""इति भावार्थः । अनेन प्रकारेण शब्द नयमतागम भावार्थः ।""मंगल णिमित्तहेऊ॥१॥ वक्खाणउ व्याख्यातु । स कः कर्ता। आइरिओ आचार्यः किं । सत्थं शास्त्र-पच्छा पश्चात् । किं कृत्वा पूर्व । वागरिय व्याकृत्य व्याख्याय । कान् ! छप्पि' षडपि मंगलणिमित्तहेऊ परिणाम णाम तह य कत्तारं । मंगलनिमित्तहेतु परिमाणनामकर्तृत्वाधिकाराणीति ।'-पञ्चा० टी०, पृ० ४-५ । 'उक्तं च-मंगलंणिमित्तहे".. ॥१॥ वक्खाणउ व्याख्यात । कं सकः ? आयरिओ आचार्यः । सत्थं शास्त्रं, 'पच्छा' पश्चात् किं कृत्वा पूर्व ? वागरिय व्याकृत्य व्याख्याय । कान् ?छप्पि षडपि अधिकारान् । कथंभूतान् ? मंगल णिमित्त।'-बृहद्, सं० टी०, पृ० ६-७।