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________________ २०० : जेनसाहित्यका इतिहास भावनात्मक ग्रन्थ है, उसमें किन्हीं सवान्तिक तत्त्वोंका प्रतिपादन नहीं है । फिर भी जहाँ अवसर मिल सका, ब्रह्मदेवजो सम्बद्ध विषयकी चर्चासे विरत नहीं रह सके। यथा, गाथा २०१७ के व्याख्यानमें यह शंका की है कि यहाँ आपने कहा कि निश्चय सम्यक्त्व वीतराग चारित्रका अविनाभावी होता है। किन्तु निश्चय सम्यक्त्व तो गृहस्थ अवस्थामें भी रहता है परन्तु वहाँ वीतराग चारित्र नहीं रहता। अतः पूर्वापर विरोध आता है । 'तत्र परिहारमाह' लिखकर उसका परिहार भी किया गया है। गाथा २।३३ के व्याख्यानमें प्रभाकरभट्ट शंका करता है-यहाँ आपने कहा है कि जो शुद्धात्माका ध्यान करते हैं, वे ही मोक्षको प्राप्त करते हैं। किन्तु 'चारित्रसार वगैरहमें कहा है कि द्रव्य-परमाणु, भाव-परमाणुका ध्यान करनेसे केवलज्ञान उत्पन्न होता है, अतः हमारा इसमें सन्देह है। इसी तरह यथास्थान शंका-समाधान किये गये हैं जो तात्त्विक दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण हैं। शेली-ब्रह्मदेवजी ग्रन्थके प्रारम्भमें ही उसकी विषयसूची दे देते हैं कि 'इत्यादि गाथाएं इन-इन विषयोंसे सम्बद्ध हैं।' यह क्रम उनकी दोनों टीकाओंमें वर्तमान है। दोनों ही टीकाओंके आरम्भमें उन्होंने शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, १. "चारित्रसारादौ पुनर्भणितं द्रव्यपरमाणु भाव परमाणु वा ध्यात्वा केवलज्ञान मुत्पादयन्तीत्यत्र विषये अस्माकं सन्देहोऽस्ति । अत्र श्रीयोगीन्द्रदेवाः परिहारमाहुः । तत्र द्रव्यपरमाणुशब्देन द्रव्यसूक्ष्मत्वं भावपरमाणुशब्देन भावसूक्ष्मत्वं ग्राह्यम् न च पुद्गलद्रव्यपरमाणुः । तथा चोक्तं सर्वार्थ सिद्धिटिप्पणके-द्रव्यपरमाणुशब्देन द्रव्यसूक्ष्मत्वं भावपरमाणुशब्देन भाव सूक्ष्मत्वमिति ।"-पर० प्र० टी०, पृ० १६९ । २. 'अत्र पदखण्डनारूपेण शब्दार्थः कथितः । शुद्धाशुद्धनयद्वयविभागेन नयार्थोऽप्युक्तः । इदानी मतार्थः कथ्यते "आगमार्थः पुनः 'अस्त्यात्मानादिबद्धः' इत्यादि प्रसिद्ध एव । शुद्धनयाश्रितं जीवस्वरूपमुपादेयं शेषं च हेयं इति हेयोपादेयरूपेण भावार्थोऽप्यवबोद्धव्यः। एवं शब्द-नय-मतागम भावार्थों यथासम्भवं व्याख्यानकाले सर्वत्र ज्ञातव्यः । -बृ० सं० टी०, गाथा० २। 'एवं पदखण्डनारूपेण' शब्दार्थः कथितः। नयविभागकथनरूपेण नयार्थों भणितः । बौद्धरादिमतस्वरूपकथनप्रस्तावे मतार्थोऽपि निरूपितः । एवं गुणविशिष्टाः सिद्धा मुक्ताः सन्तीत्यागमार्थः प्रसिद्धः । अत्र नित्यनिरञ्जनज्ञानमयरूपं परमात्मद्रव्यमुपादेय मिति भावार्थः । अनेन प्रकारेण शब्दनयमतागमभावार्थो व्याख्यानकाले यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्यः । -प० प्रका०, टी० पृ० ७-८ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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