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________________ अध्यात्म-विषयक टीका - साहित्य : १९९ उपाधि है जो बतलाती है कि वे ब्रह्मचारी थे और देव उनका नाम है । यद्यपि कई ग्रन्थकारोंने अपने नामके प्रारम्भमें ब्रह्म शब्दका उपयोग उपाधिके रूपमें किया है, यथा-आराधना - कथाकोशके कर्ता ब्रह्म नेमिदत्तने, श्रुतस्कन्धके रचयिता ब्रह्म हेमचन्द्रने तथा अनेक ग्रन्थोंके रचयिता ब्रह्म श्रुतसागरने । किन्तु ब्रह्मदेवमें ब्रह्म नाम उपाधिसूचक प्रतीत नहीं होता । किन्तु ब्रह्मसेन, ब्रह्मसूरि आदि नामोंकी तरह यह पूरा नाम ही प्रतीत होता है। फिर भी यह संभव है कि वे भी ब्रह्मचारी ही हों । . ब्रह्मदेवजी जैन सिद्धान्तके तो अच्छे ज्ञाता थे ही, इतर दर्शनोंके भी ज्ञाता थे । उनकी विद्वत्ताका प्रभाव बृहद्रव्यसंग्रहकी टीकामें प्रतिफलित हुआ है । उसमें उन्होंने कतिपय गाथाओंके व्याख्यानमें जैनसिद्धान्तकी बहुत-सी बातोंकी सुन्दर जानकारी करायो है । यथा--गाथा १० की व्याख्यामें समुद्घांतका, गाथा १३ की व्याख्यामें गुणस्थानों और मार्गणाओंका गाथा १४ के व्याख्यानमें सिद्धोंके गुणोंका, गाथा ३५ के व्याख्यानमें बारह अनुप्रेक्षाओंका और उनमेंसे भी लोकानुप्रेक्षाके अन्तर्गत तीनों लोकोंका बहुत ही विस्तारसे कथन किया है । इसी तरह कुछ सैद्धान्तिक चर्चाएँ भी महत्त्वपूर्ण हैं । यथा - गाथा ५ के व्याख्यानमें मतिज्ञान के परोक्षत्व और सांव्यवहारिक प्रत्यक्षकी चर्चा की है, गाथा ४४ की व्याख्या में दर्शनोपयोगकी प्रचलित व्याख्या सामान्यावलोकनका निर्देश करके 'अत ऊर्ध्वं सिद्धान्ताभिप्रायेण कथ्यते' लिखकर धवलामें प्रतिपादित सैद्धान्तिक व्याख्या की है, और फिर इन दोनों व्याख्याओंका दृष्टिभेदसे समन्वय भी किया है | गाथा ५० की व्याख्या में सर्वज्ञके विरोध में पूर्वपक्ष भट्ट चार्वाकका बतलाया जो भट्ट मीमांसकका होना चाहिए था । इस टीकामें दो ऐसे ग्रन्थोंका नाम आया है जो अनुपलब्ध हैं । उनमें से एकका नाम पञ्चपरमेष्ठी' और दूसरेका पञ्चनमस्कार बतलाया है । गाथा १३ की टीका में 'गुणजीवापज्जती आदि गाथाको उद्धृत करके लिखा है--' इस गाथाके द्वारा जो कथन किया है वही धवल, जयधवल महाधवल नामक तीनों ग्रन्थोंका बीजपद है ।' इससे प्रकट होता होता है कि ब्रह्मदेवजीने इन ग्रन्थोंका नाममात्र ही सुना था । स्वयं उनके अवलोकनका सौभाग्य उन्हें प्राप्त नहीं हुआ था । परमात्मप्रकाशवृत्ति - परमात्मप्रकाशकी टीकामें बृहद्रव्यसंग्रहकी टीकाकी तरह सैद्धान्तिक चर्चाएँ नहीं हैं। इसका कारण यह भी है कि परमात्म प्रकाश एक १. ' विस्तरेण पञ्चपरमेष्ठीग्रन्थकथितक्रमेण अतिविस्तरेण तु सिद्धचक्रादिदेवार्चनविधिरूपमंत्रवादसम्बन्धि - पञ्चनमस्कारग्रन्थे चेति' - बृहद्व० सं० टी० गा० ५४ । २. इति गाथाप्रभृतिकथितस्वरूपं धवल- जयघवलप्रबन्धाभिधानसिद्धान्तत्रय बीजपदं सूचितम् । - वृहद्र० सं० टी०, गा० १३ । ,
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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