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________________ १९८ : जेनसाहित्य का इतिहास हैं । उन्होंने प्रत्येक विषय पर अपनी लेखनी चलाई है और लगभग बीस ग्रन्थोंकी रचनाओंको जन्म दिया है। वे न केवल जैनशास्त्रोंमें ही निष्णात थे, बल्कि इतर शास्त्रोंमें भी उनकी अबाधगति थी। जैनधर्मका उनका अध्ययन तो बड़ाविशाल था। उनके टीकाग्रन्थोंको देखनेसे पता चलता है कि उन्होंने अपने समयके उपलब्ध तमाम जैनग्रन्थोंका तलस्पर्शी अवगाहन किया था। उनकी टीकाएं जैन और जैनेतर ग्रन्थोंके उद्धरणोंसे भरपूर हैं। अपने ग्रन्थोंकी अन्तिम प्रशस्तियों में उन्होंने अपना पूरा परिचय दिया है ।। वे मूलमें मांडलगढ़ ( मेवाड़ ) के निवासी थे । शहाबुद्दीन गोरीके आक्रमणों से त्रस्त होकर मालवाकी राजधानी में आकर बस गये थे। वे बघेरवाल जातिके वैश्य थे। उनके द्वारा रचित ग्रन्थोंमें से एक 'अध्यात्म रहस्य' नामका ग्रन्थ था जो अभीतक अप्राप्य है। इसके नामसे प्रकट है कि यह अध्यात्मविषयका मार्मिक ग्रन्थ होना चाहिए। उसके सिवाय प्रकृत विषयसे सम्बद्ध ग्रन्थोंमें उन्होंने पूज्यपादके इष्टोपदेशपर एक टीका लिखी है, जो प्रकाशित हो चुकी है । इस ग्रन्थकी श्लोकसंख्या ५१ है। जैसा मूलग्रन्थ छोटा-सा है तदनुरूप ही उसकी टीका भी है । किन्तु पं० आशाधर जी ने उसके अन्तर्गत मूल श्लोकोंकी संख्याके लगभग ग्रन्थान्तरों से पद्य उद्ध त किये हैं। उद्धृत' पद्योंमें से कुछ पद्य कुन्दकुन्दाचार्यके पञ्चास्तिकाय, अकलंकदेवके लघीयस्त्रय, गुणभद्र के आत्मानुशासन, गोम्मटसार जीवकाण्ड, द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, अमृतचन्द्रकी आत्मख्याति टीका, पुरुषार्थसिद्धयुपाय और तत्त्वानुशासन आदि ग्रन्थोंसे दिये गये हैं और इस दृष्टिसे छोटी-सी टीका भी काफी समृद्ध है। श्लोकके पदोंका अर्थ करके उसका व्याख्यान किया गया है तथा शिष्यके द्वारा शंका उठाकर उसके समाधान द्वारा प्रकृत विषयको स्पष्ट किया गया है। टीकाकार ब्रह्मदेव ___ अध्यात्मशैलीके टीकाकारों में ब्रह्मदेवका नाम उल्लेखनीय है। उनके दो टीकाग्रन्थ उपलब्ध हैं, एक परमात्मप्रकाश-टीका और एक बृहद्रव्यसंग्रह टीका । अपनी टीकाओंमें उन्होंने अपने सम्बन्धमें कुछ भी नहीं लिखा । केवल बृहद्रव्यसंग्रहको अन्तिम पुष्पिकामें उनका नाममात्र आया है । परमात्मप्रकाशकी टीकाके अन्तमें उसका भी अभाव है। बृ० द्र० सं० की भूमिकामें पं. जवाहरलालजीने लिखा था कि ब्रह्म उनकी १. तत्वानुशासनादिसंग्रह-पृ० ३३, ३०, ३६, ४३, ४१, ५२, ४८, ४९ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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