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अध्यात्म-विषयक टीका-साहित्य : १९७
गत रखा है । इसीसे यहाँ उसका परिचय नहीं दिया है । किन्तु उसके टीकाकार पद्मप्रभ मलधारीदेवने अमृतचन्द्राचार्यकी शैलीमें ही उसकी टीका की है। इसी लिये उसका उल्लेख इस प्रकरण में किया जाता है। .
पद्मप्रभदेव ने इस टीकामें अमृतचन्द्रके अनेक पद्योंको ही उद्धृत नहीं किया है किन्तु उन्हींकी शैलीको अपनाकर टीकाके अन्तर्गत अनेक पद्य भी बीच-बीच में रचे हैं । जयसेन की अपेक्षा पद्मप्रभ ने अमृतचन्द्रकी शैलीको अधिक अपनाया है, उन्हीं की तरह सुललित गद्यात्मक शैलीमें टोकाका निर्माण किया है ।
किन्तु जयसेनाचार्यकी तरह ग्रन्थान्तरोंसे उद्धरण बहुतायतसे दिये हैं। इस तरहसे उन्होंने कुन्दकुन्दाचार्यके अपने पूर्ववर्ती दोनों टीकाकारोंका अनुसरण किया है। उन्होंने अपनी टीकामें पद्य उद्धृत करते हुए समन्तभद्र, पूज्यपाद, योगीन्द्रदेव, विद्यानन्दि, गुणभद्र, अमृतचन्द्र तथा सोमदेव पण्डित, वादिराज, महासेन नामके आचार्योंका तथा समयसार, पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार, उपासकाध्ययन, अमृताशीति, मार्गप्रकाश, प्रवचनसारव्याख्या, समयसारव्याख्या एकत्व सप्तति, तत्त्वानुशासन, श्रुतविन्दु नामके ग्रन्थोंका उल्लेख किया है। इसमें मार्ग प्रकाश नामक ग्रन्थका अन्यत्र उल्लेख नहीं मिलता।
पद्मप्रभने अपनेको सुकविजनपयोज मित्र, पञ्चेन्द्रिय प्रसर वर्जित, और गात्रमात्रपरिग्रह लिखा है। यह जयसेनके पश्चात् विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीके मध्यमें हुए हैं । और जयसेनके लघु समकालीन प्रतीत होते हैं।
अन्य टीकाएँ-मल्लिषेण नामके एक आचायने भी समयसारादि पर टीका रची थी और वह जैनमठ श्रवणबेलगोला में है, ऐसा मैसूर कुर्गके संग्रह में लिखा है । सी० पी० और बरारके संस्कृत प्राकृत ग्रन्थोंके कैटलाग में (५.६६३६७१) मल्लिषण आचार्यकृत पञ्चास्तिकाय और प्रवचनसार पर टीका होनेका निर्देश है, किन्तु समयसार पर भी मल्लिषेणने टीका लिखी थी इसका समर्थन अन्यत्रसे नहीं होता। पीछे हम देख आये हैं, कि टीकाकारोंने कुन्दकुन्दके प्रायः तीन प्राभूतों पर टीकाएं रची है । अतः संभव है, मल्लिषेणने भी तीनों प्राभूतोंपर टीका रची हो। यह मल्लिषेण कौन हैं और कब हुए है, बिना किसी आधारके कुछ कहना संभव नहीं है। इष्टोपदेश टीका
विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीमें आशाधर नामके एक महान ग्रन्थकार हो गये १. माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बईसे 'तत्वानुशासनादि संग्रह' के अन्तर्गत । २. आशाधरका विस्तृत परिचय जानने के लिए देखें-जै० सा० इ०,
पृ० ३४ बादि ।