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________________ १९६ : जैनसाहित्य का इतिहास लिखा है कि वह टीका उन्हीं प्रभाचन्द्रकी है जिन्होंने समन्तभद्रके रत्नकरंड श्रावकाचारकी टीका बनाई है। इसके लिये उन्होंने दोनों टीकाओं से कुछ वाक्यादि उद्धत करके उनकी समानताकी पुष्टि की है । रत्नकरंड श्रावकाचार की अपनी विद्वतापूर्ण विस्तृत प्रस्तावना में मुख्तार साहबने प्रभाचन्द्र नामके अनेक आचार्यो भट्टारकों और मुनियोंका संक्षिप्त परिचय दिया है तथा रत्नकरण्ड टीकाके कर्ता प्रभाचन्द्रको विक्रमकी १३वीं शताब्दीका विद्वान सिद्ध किया है। चूंकि मुख्तार सा० के मतानुसार समाधितंत्र को टीका भी उन्हीं प्रभाचन्द्रकी है | अतः उन्होंने इसको विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीकी रचना बतलाया है । किन्तु मूडविद्रीके' जैनमठमें इस टीकाकी ताड़पत्रीय प्रतिके अन्त में लिखा है - 'श्री जयसिंह देव राज्ये श्रीमद्वारा निवासिना परापर परमेष्ठिप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिराकृताखिलमलकलङ्क ेन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन समाधिशतक टीका कृतेति ।' यह वही प्रसिद्ध वाक्य है जो आवश्यक परिवर्तन के साथ प्रभाचन्द्र विरचित 'प्रमेयकमल मार्तण्ड, गद्यकथाकोश' आदि ग्रन्थोंके अन्तमें पाया जाता है । प्रमेयकमल मार्तण्ड में 'भोजदेवराज्ये' है । किन्तु न्याय कुमुदचन्द्रके अन्तमें 'जयसिंहदेव राज्ये' है । जयसिंह देव भोज देवके उत्तराधिकारी थे और भोजदेवकी मृत्युके बाद ई० १०५६-५७ में मालवाके सिंहासनपर बैठे थे । इन्हीं दोनोंके समयमें प्रसिद्ध नैयायिक और दार्शनिक प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकु मुदचन्द्रोदय नामके ग्रन्थोंकी रचना की थी । समाधितंत्र टीकाकी ताड़पत्रीय प्रतिमें पाये जानेवाले उक्त वाक्यसे तो यही प्रतीत होता है कि उक्त टीका उन्हीं प्रभाचन्द्रकी है । उसमें एक जगह उक्त दोनों ग्रन्थों का उल्लेख भी है । न्यायाचार्य पं० महेन्द्र कुमारजी ने प्रमेयकमलमार्तण्डकी प्रस्तावनामें समाधितंत्र टीका को तथा प्रवचनसरोज भास्करको भी उन्हीं प्रभाचन्द्रकी कृति माना है । प्रवचन सरोज भास्कर तो हमारे सामने उपस्थित नहीं है । और समाधितंत्र टीकामें ऐसे कोई सबल प्रमाण नहीं है जिनके आधार पर निश्चित रूपसे यह कहा जा सकता हो कि यह टीका प्रमुक प्रभाचन्द्रकृत ही है । टीकाकार पद्मप्रभ मलधारिदेव कुन्दकुन्द रचित नियमसारको हमने द्रव्यानुयोगके तत्त्वार्थ विभागके अन्त १. क० ता० ग्र० सू० पृ० २९ । " २. 'यैः पुनर्योगसांख्यंमुक्तौ तत्प्रच्युतिरात्मनोऽभ्युयगता ते प्रमेयकमलमार्तण्ड न्यायकुमुदचन्द्रे च मोक्षविचारे विस्तरतः प्रत्याख्याताः ।' स० [सं० टी०, पृ. १५ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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