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________________ १९४ : जेनसाहित्य का इतिहास कारसे सम्बद्ध होनेपर भी स्वयं टीकाकारके द्वारा नहीं रची गई है, किन्तु उनके किसी शिष्यादिके द्वारा रची गई। प्रशस्तिमें कुल आठ श्लोक हैं, किन्तु बीचमें अर्थ स्पष्ट न हो सकनेसे त्रुटित प्रतीत होती है । उसके प्रथम श्लोकमें कुमुदेन्दुको नमस्कार किया है। आगे लिखा है कि मूलसंघमें श्रीवीरसेन नामक निर्ग्रन्थ तपस्वी मुनि हुए। उसके पश्चात् गणी श्रीसीमसेन हुए। उनके शिष्य तपस्वी जयसेन हैं। इससे जयसेनाचार्यके गुरु और प्रगुरुका नाम ज्ञात हो जाता है। किन्तु वे कब हुएं यह ज्ञात नहीं होता। और इसके निर्णयके लिए जयसेनके द्वारा अपनी टीकाओंमें उद्धृत पद्योंका ही सहारा लेना पड़ता है। यह हम ऊपर लिख आये हैं कि जयसेनाचार्यने अपनी टीकाओंमें बहुत से श्लोक और गाथाएँ अन्य ग्रन्थोंसे उद्धत की हैं । कुछ गाथाओंके तो स्थलोंका पता लग जाता है किन्तु श्लोकों का तो पता ही नहीं लगता और उद्धृत श्लोकोंकी संख्या अधिक है। कुछ ग्रन्थों का भी नामोल्लेख किया है-यथा द्रव्य संग्रह, तत्त्वानुशासन, चारित्रसार, त्रिलोकसार, लोकविभाग आदि । १. इनमेंसे चारित्रसारकी रचना चामुण्डरायने की है। और त्रिलोकसार उन्हीके समकालीन नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने रचा है। चामुण्डरायने अपना चामुण्डराय पुराण श० सं० ९०० अर्थात् वि० सं० १०३५ में समाप्त किया था। अतः निश्चित है कि जयसेन विक्रमकी ११ वीं शताब्दीके पूर्वार्धसे पहले नहीं हुए। २. उन्होंने अपनी पञ्चा० टी० (पृ० ८) में दो पद्य उद्धृत किये हैं जो वीरनन्दिके आचारसार (४-९५, ९६) के हैं। कर्नाटक कवि चरितेके अनुसार इन वीरनन्दि ने अपने आचारसार पर एक कन्नड़ टीका सन् १०७६ (वि० सं० १२११) में लिखी थी। अतः निश्चित है कि जयसेन विक्रमकी वारहवीं शताब्दीके पश्चात् हुए हैं। ___ डॉ० उपाध्येने लिखा है कि नयकीतिके शिष्य बालचन्द्रने कुन्दकुन्दके तीनों प्राभूतों पर कन्नड़में टीका लिखी हैं और उनकी टीकाका मुख्य आधार जयसेनकी टीकाएं हैं । उनकी टीका रचनाका काल ईसाकी तेरहवीं शताब्दी का प्रथम चरण है। अतः जयसेनने अपनी टीकाएं ईसाकी बारहवीं शताब्दी के उतरार्ध में अर्थात् विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीके पूर्वार्ध में रची हैं । प्रभाचन्द कृत टीका स्व० रायबहादुर हीरालाल कृत मध्य प्रदेश और बरारके संस्कृत और १. प्रव-सा०, को प्रस्ता०, पृ० १०४ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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